साहित्यकार भावयोगी होता है। उसकी साधना ज्ञानयोगी
अथवा कर्मयोगी की साधना से किसी प्रकार कम महत्वपूर्ण नहीं।
भावयोग का तो लोकोत्तर आनंद से सीधा सम्बन्ध रहता है
अतएव वह मुक्तावस्था में स्वतः ही अनायास पहुँच सकता
और अपने सहृदय श्रोताओं अथवा पाठकों को भी
अनायास पहुँचा सकता है।
यही वह साधन है जिसकी साधनावस्था में भी आनंद है
और सिद्धावस्था में भी आनंद है,जिसका साध्य भी आनंद स्वरूप है
शक्ति,अध्ययन और अभ्यास तीनों के ऊँचे सहयोग आवश्यकता रहती है।
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'तुलसी दर्शन' से
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