वर्तमान में विकसित किसी भी देश की संस्कृति का
मूल उद्गम वहाँ का लोक जीवन ही है, क्योंकि
लोक संस्कृति ही तो मानव की सामूहिक ऊर्जा का स्रोत होती है।
लोक जीवन का रस ही समाज की जड़ों को सींचता है।
आज का मनुष्य जिस तरह की मनुष्यता की खोज कर रहा है
उसे लोक संस्कृति के विकास में ही उपलब्ध किया जा सकता है।
यह लोक संस्कृति तो लोक परम्पराओं में, लोक साहित्य, लोक नाट्य,
लोक कला, लोक गीत में सहज आत्मीयता के साथ उल्लसित है।
लोक जीवन में कटुता, द्वेष, घृणा की जगह प्रेम, सेवा, सहृदयता और
हार्दिकता मिलती है। जन कल्याण की भावना से आपूरित लोक संस्कृति
ने हमेशा लोक धर्म के माध्यम से ही अनुभूति और यथार्थ की
अभिव्यक्ति की है। उसके जीवन मूल्य हमारी धरोहर हैं।
लोक संस्कृति की यह जो शक्ति है,
यह उसी विज्ञान सम्मत धारणा के कारण है।
लोक संस्कृति जन-जन के श्रम से सिंचित होकर प्रकृति की गोद में
पलती-पनपती रही है। मानव का मानव के प्रति सहज प्रेम ही
लोक संस्कृति का साध्य रहा है। श्रम की पूजा के साथ ही
पारस्परिक प्रेम से भरी विश्व बंधुत्व की भावना हमारे लोक जीवन का
मूल आधार रही है। जन जीवन के बीच
कलाओं में लोक जीवन आज भी स्पन्दित है। लोक कला को संरक्षण और
प्रोत्साहन देने के नाम पर ढोल पीटने में लगे हुए शोषक वर्ग का नज़रिया
अभिजात समूह के मनोरंजन तक सीमित रह जाता है। जबकि आवश्यकता
लोक-कला और लोक संस्कृति के माध्यम से जनता को बदलने, उसे चैतन्य करने,
उसे परिष्कृत करने की है। जिनकी बिना पर ही ये समाज टिका है।
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लोक संस्कृति आयाम और परिप्रेक्ष्य / श्री प्रकाशन दुर्ग से
रविवार, 20 जुलाई 2008
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