श्री विनोदकुमार शुक्ल का जन्म १ जनवरी १९३७ को राजनांदगांव (छत्तीसगढ़) में हुआ। उनका पहला कविता संग्रह 'लगभग जयहिंद' १९७१ में प्रकाशित हुआ था। दूसरा 'वह आदमी चला गया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह' १९८१ में तथा उनका पहला उपन्यास 'नौकर की कमीज़' १९७९ में छपा। १९८८ में कहानी संग्रह 'पेड़ का कमरा' और १९९२ में कविता संग्रह 'सब कुछ होना बचा रहेगा' प्रकाशित हुआ। उनकी रचनाओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। १९९४ से १९९६ तक निराला सृजन पीठ भोपाल में अतिथि साहित्यकार रहते हुए श्री शुक्ल ने 'खिलेगा तो देखेंगे',
'दीवार में एक खिड़की रहती थी' उपन्यास पूर्ण किया।
यहाँ प्रस्तुत है उनकी एक कविता -
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जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे
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जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊँगा
एक उफनती नदी कभी
नहीं आयेगी मेरे घर
नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊँगा
कुछ तैरूंगा और डूब जाऊँगा.
पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब
असंख्य पेड़, खेत
कभी नहीं आयेंगे मेरे घर
खेत खलिहानों जैसे लोगों से मिलने
गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा.
जो लगातार काम में लगे हैं
मैं फुर्सत से नहीं
उनसे एक ज़रूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा...
इसे मैं अकेली आख़िरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा.
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मंगलवार, 16 सितंबर 2008
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1 टिप्पणी:
विनोद कुमार शुक्ल जी से परिचय कराने के लिये बहुत धन्यवाद।
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