मंगलेश जी की कविताएँ समाज का
वह चित्र उपस्थित करती हैं जिनके
बिना हमारे समय और जीवन का
कोई भी चित्र पूरा नहीं कहा जा सकता।
काव्य संग्रह 'पहाड़ पर लालटेन',
'हम जो देखते हैं', 'घर का रास्ता', 'इस नगरी में रात'
और निबंध संग्रह 'लेखक की रोटी' , 'एक बार आयोबा'
आदि के माध्यम से मंगलेश जी की संवेदना और
लेखकीय चिंता की विविध छवियाँ
देखी-परखी जा सकती हैं।
प्रस्तुत है उनकी एक कविता -
एक स्त्री
=====
सारा दिन काम करने के बाद
एक स्त्री याद करती है
अगले दिन के काम
एक आदमी के पीछे
चुपचाप एक स्त्री चलती है
उसके पैरों के निशान पर
अपने पैर रखती हुई
रास्ते भर नहीं उठाती निगाह
किसी चट्टान के पीछे
सन्नाटे में एकाएक एक स्त्री सिसकती है
अपनी युवावस्था में
अगले ही दिन आने वाले
बुढ़ापे से बेख़बर
रात को आँखें बंद किए हुए
एक स्त्री सोचती है
समय बीत रहा है
समय बीत जाएगा आँखें बंद किए हुए।
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वह चित्र उपस्थित करती हैं जिनके
बिना हमारे समय और जीवन का
कोई भी चित्र पूरा नहीं कहा जा सकता।
काव्य संग्रह 'पहाड़ पर लालटेन',
'हम जो देखते हैं', 'घर का रास्ता', 'इस नगरी में रात'
और निबंध संग्रह 'लेखक की रोटी' , 'एक बार आयोबा'
आदि के माध्यम से मंगलेश जी की संवेदना और
लेखकीय चिंता की विविध छवियाँ
देखी-परखी जा सकती हैं।
प्रस्तुत है उनकी एक कविता -
एक स्त्री
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सारा दिन काम करने के बाद
एक स्त्री याद करती है
अगले दिन के काम
एक आदमी के पीछे
चुपचाप एक स्त्री चलती है
उसके पैरों के निशान पर
अपने पैर रखती हुई
रास्ते भर नहीं उठाती निगाह
किसी चट्टान के पीछे
सन्नाटे में एकाएक एक स्त्री सिसकती है
अपनी युवावस्था में
अगले ही दिन आने वाले
बुढ़ापे से बेख़बर
रात को आँखें बंद किए हुए
एक स्त्री सोचती है
समय बीत रहा है
समय बीत जाएगा आँखें बंद किए हुए।
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3 टिप्पणियां:
खुली आंखों से भी बीत
जाया करे है वक्त
उम्र बीती है
इन्ही नज़ारों को देखते
अक्सर सुनी है
अपने ही दिल की बात
बंद आंखों से
सिर्फ सपने ही
सुहाते हैं....
सच में, स्त्री समय जीती नहीं, समय काटती है।
manglesh ji ki kavita aaaj pehli baar padh rahi hun....kintu itni satya lag rahi hai ki seedhe hriday par prabhaav chod jaati hai,,,,saabhaar sweekaren......
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