गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

थोड़ी-सी दीवानगी और... 
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उछलते खेलते बचपन में बेटा ढूंढती होगी,
तभी तो देख कर पोते को दादी मुस्कुराती है.

डॉ.चन्द्रकुमार जैन 
संपर्क - 9301054300

हाल ही में लम्बी ग़ज़ल वाली किताब मुहाजिरनामा घर ले आया। बहरहाल, मुनव्वर साहब ने अपनी किताब ‘मां’ मे उक्त बेबाक बातें कहीं हैं। उनकी किताब 'शहदाबा' के लिए उन्हें उर्दू भाषा का साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। वाणी प्रकाशन से छपी इस किताब में उनकी करीब 30 ग़ज़लें, 40 नज़्में और एक गीत है। अपने अंदाज़ का बाँकपन बरक़रार रखते हुए मुनव्वर फिर बोले, 'खराब खाना और खराब शायरी बर्दाश्त नहीं कर सकता। 

याद रहे कि 2013 में उर्दू के लिए जावेद अख्तर और हिंदी के लिए मृदुला गर्ग को यह पुरस्कार मिल चुका है। उर्दू अदब में कृष्ण कुमार तूर, खलील मामून, शीन काफ निजाम, गुलजार, बशीर बद्र, निदा फाजली और कैफी आजमी जैसे दिग्गज इस सम्मान की शोभा बढ़ा चुके हैं। उर्दू का पहला साहित्य अकादमी पुरस्कार 1955 में जफर हुसैन खान को मिला था। पेश हैं मुनव्वर की जिंदगी के रदीफ-काफिये - सबसे पहले ये रहे शहदाबा से कुछ शेर -

आंखों को इन्तिज़ार की भट्टी पे रख दिया
मैंने दिए को आंधी की मर्ज़ी पे रख दिया
अहबाब का सुलूक भी कितना अजीब था
नहला धुला के मिट्टी को मिट्टी पे रख दिया
सच बोलने में नशा कई बोतलों का था
बस यह हुआ कि मेरा गला भी उतर गया

और लीजिये पढ़िए राणा साहब की बुनियादी फितरत का बयां करती एक लाज़वाब ग़ज़ल -

हँसते हुए माँ-बाप की गाली नहीं खाते
बच्चे है तो क्यो शौक से मिट्टी नहीं खाते

तुझ से नहीं मिलने का इरादा तो है लेकिन
तुझसे न मिलेंगे ये कसम भी नही खाते

सो जाते है फुटपाथ पे अखबार बिछाकर
मजदूर कभी नींद की गोली नही खाते

बच्चे भी गरीबी को समझने लगे शायद
अब जाग भी जाते है तो सहरी नहीं खाते

दावत तो बड़ी चीज़ है हम जैसे कलंदर
हर एक के पैसे की दवा भी नहीं खाते

अल्लाह ग़रीबों का मददगार है 'राना'
हम लोगों के बच्चे कभी गोली नहीं खाते 

ये रही मुहाजिरनामा की चर्चा जिसे इस लेख के शुरूआत में मैंने जानबूझकर कुछ देर तक मुल्तवी कर रखा था। तो बात ऎसी है कि सन 1947 की कड़वी यादों ने कुछ लोगो को ताउम्र के लिए आंसू दिए जिनमे उनके अपने सीमा पर कर नए मुल्क, नयी आज़ादी की उम्मीद में पाकिस्तान में चले गए परन्तु वहा उनको अपनापन नहीं मिला। भारत से गए इन लोगों को वहा मुहाजिर (निर्वासित ) का नाम दिया गया। मशहूर शायर मुनव्वर राना ने उनके इस दर्द को अपने अल्फाज़ दिए है, कहा जाता है की ये 'मुहाजिरनामा' उन्होंने अपने किसी सम्बन्धी से प्रेरित होकर लिखा था जो कुछ दिन बाद भारत यात्रा पर वापस आये थे। तो कुछेक शेर की थोड़ी सी दीवानगी आज के अंक में मुलाहिज़ा फरमाइए -
 
मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं,
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं ।
 
कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है,
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं ।
 
नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में,
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं ।
 
अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी,
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं ।

अंत में रिश्तों के सरोकार को आवाज़ देते मुनव्वर साहब के कुछ अशआर और साझा कर लूँ तो कोई बात बने -

लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है,
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं, हिन्दी मुस्कुराती है

उछलते खेलते बचपन में बेटा ढूंढती होगी,
तभी तो देख कर पोते को दादी मुस्कुराती है,

तभी जा कर कहीं माँ-बाप को कुछ चैन पड़ता है,
कि जब ससुराल से घर आ के बेटी मुस्कुराती है

चमन में सुबह का मंज़र बड़ा दिलचस्प होता है,
कली जब सो के उठती है, तो तितली मुस्कुराती है

हमें ऐ ज़िन्दगी तुझ पर हमेशा रश्क आता है,
मसाइल से घिरी रहती है,फिर भी मुस्कुराती है

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