साहित्य साक्षी होता है मानवीय दुर्गति का,न्यायिक निषेध का। वह समस्त निष्ठुरताओं का गवाह तो है पर उसके पास कोई तैयार निदान या समाधान नहीं है। एक राजनीतिज्ञ कह सकता है - 'तुम मुझे वोट दो, मैं देश को स्वर्ग बना दूँगा।' एक धार्मिक व्यक्ति कह सकता है - 'मेरी राह चलो, निश्चित स्वर्ग मिलेगा।' परन्तु एक लेखक नहीं कह सकता की मेरी रचना पढो, तुम दूसरे ज़हां में पहुँच जाओगे या कि मैं सब कुछ ठीक कर दूँगा। इस विषय में लेखक कुछ भी नहीं कर सकता। वह तो मानवीय यातना की विस्तीर्ण धरती का एक मूक साक्षी है। वह तो केवल अपनी चिंताएँ बाँट सकता है, चेतना जगा सकता है कि देखो यह चीजें हैं जो व्यवस्था को खोखला कर रही हैं, इनसे सावधान रहो।
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वागर्थ : अंक ४९ से साभार.