गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

थोड़ी सी दीवानगी और 
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खादी के धागे-धागे में
अपनेपन का अभिमान भरा

डॉ.चन्द्रकुमार जैन 
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गांधी जी ने 1920 के दशक में गाँवों को 
आत्म निर्भर बनाने के लिये 
खादी के प्रचार-प्रसार पर बहुत जोर दिया था । 
जरा सोचें कि हम विज़न 2020 में शामिल कर 
उसी खादी को एक नई पहचान देकर 
बापू की उस देशभक्ति से परिपूर्ण मुहिम को 
शताब्दी वर्ष के रूप में 
सन 2020 में धूमधाम से नहीं मना सकते ?

यह वास्तव में उत्साहवर्धक है कि माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने आज कहा कि खादी के जरिये भारतवासियो को स्वाबलंबी बनाने के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सपने को उनकी सरकार आगे बढ़ा रही है और विभिन्न सरकारी संस्थान आगे बढ़कर खादी के उत्पादों का उपयोग कर रहे हैं। दरअसल, मुझे लगता है कि सिरे से लोगों तक पहुंचे ये उद्गार खादी को लेकर बापू की सोच की व्यापकता को स्वर देने की नई पहल के समान है। 

 बहरहाल, खादी पर गांधी जी के दृष्टिकोण में निहित और सूत के एक-एक धागे के साथ जुड़ी स्वाधीनता, संवेदना, आत्म सम्मान की भावना को समझना आज भी समझदारी की बात है। वह आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने चरखे के चक्र में कल की गति के साथ ताल मेल करने और उससे होड़ लेने की भी अनोखी शक्ति को गहराई से देख लिया था। खादी के जन्म की कहानी भी काम रोचक नहीं है। 

अपनी आत्म कथा में बापू लिखते हैं कि मुझे याद नहीं पड़ता कि सन् 1915 मे मै दक्षिण अफ्रीका से हिन्दुस्तान वापस आया , तब भी मैने चरखे के दर्शन नही किये थे। कोठियावाड़ और पालनपूर से करधा मिला और एक सिखाने वाला आया । उसने अपना पूरा हुनर नही बताया । परन्तु मगनलाल गाँधी शुरू किये हुए काम को जल्दी छोडनेवाले न थे । उनके हाथ मे कारीगरी तो थी ही । इसलिए उन्होने बुनने की कला पूरी तरह समझ ली और फिर आश्रम मे एक के बाद एक नये-नये बुनने वाले तैयार हुए ।

आगे गांधी जी लिखते हैं कि हमे तो अब अपने कपड़े तैयार करके पहनने थे । इसलिए आश्रमवासियो ने मिल के कपड़े पहनना बन्द किया और यह निश्यच किया कि वे हाथ-करधे पर देशी मिल के सूत का बुना हुआ कपड़ा पहनेगे । ऐसा करने से हमे बहुत कुछ सीखने को मिला । हिन्दुस्तान के बुनकरों के जीवन की, उनकी आमदनी की, सूत प्राप्त करने मे होने वाली उनकी कठिनाई की, इसमे वे किस प्रकार ठगे जाते थे और आखिर किस प्रकार दिन-दिन कर्जदार होते जाते थे, इस सबकी जानकारी हमे मिली । हम स्वयं अपना सब कपड़ा तुरन्त बुन सके, ऐसी स्थिति तो थी ही नही। कारण से बाहर के बुनकरों से हमे अपनी आवश्यकता का कपड़ा बुनवा लेना पडता था। देशी मिल के सूत का हाथ से बुना कपड़ा झट मिलता नही था । बुनकर सारा अच्छा कपड़ा विलायती सूत का ही बुनते थे , क्योकि हमारी मिलें सूत कातती नहीं थी । आज भी वे महीन सूत अपेक्षाकृत कम ही कातती है , बहुत महीन तो कात ही नही सकती । बडे प्रयत्न के बाद कुछ बुनकर हाथ लगे , जिन्होने देशी सूत का कपडा बुन देने की मेहरबानी की । 

इन बुनकरों को आश्रम की तरफ से यह गारंटी देनी पड़ी थी कि देशी सूत का बुना हुआ कपड़ा खरीद लिया जायेगा । इस प्रकार विशेष रूप से तैयार कराया हुआ कपड़ा बुनवाकर हमने पहना और मित्रो मे उसका प्रचार किया । यों हम कातने वाली मिलों के अवैतनिक एजेंट बने । मिलो के सम्पर्क मे आने पर उनकी व्यवस्था की और उनकी लाचारी की जानकारी हमे मिली । हमने देखा कि मीलों का ध्येय खुद कातकर खुद ही बुनना था । वे हाथ-करधे की सहायता स्वेच्छा से नही , बल्कि अनिच्छा से करती था । यह सब देखकर हम हाथ से कातने के लिए अधीर हो उठे। हमने देखा कि जब तक हाथ से कातेगे नही, तब तक हमारी पराधीनता बनी रहेगी । मीलों  के एजेंट बनकर देश सेवा करते है , ऐसा हमे प्रतीत नहीं हुआ ।

लेकिन गांधी जी के अनुसार न तो कही चरखा मिलता था और न कही चरखे का चलाने वाला मिलता था । कुकड़ियाँ आदि भरने के चरखे तो हमारे पास थे, पर उन पर काता जा सकता है इसका तो हमे ख्याल ही नही था । एक बार कालीदास वकील एक वकील एक बहन को खोजकर लाये । उन्होने कहा कि यह बहन सूत कातकर दिखायेगी । उसके पास एक आश्रमवासी को भेजा , जो इस विषय मे कुछ बता सकता था, मै पूछताछ किया करता था । पर कातने का इजारा तो स्त्री का ही था । अतएव ओने-कोने मे पड़ा हुई कातना जानने वाली स्त्री तो किसी स्त्री को ही मिल सकती थी।

बापू स्पष्ट करते हैं कि सन् 1917 मे मेरे गुजराती मित्र मुझे भड़ोच शिक्षा परिषद मे घसीट ले गये थे । वहाँ महा साहसी विधवा बहन गंगाबाई मुझे मिली । वे पढी-लिखी अधिक नही थी , पर उनमे हिम्मत और समझदारी साधारणतया जितनी शिक्षित बहनो मे होती है उससे अधिक थी । उन्होंने अपने जीवन मे अस्पृश्यता की जड़ काट डाली थी, वे बेधड़क अंत्यजों मे मिलती थीं और उनकी सेवा करती थी । उनके पास पैसा था , पर उनकी अपनी आवश्यकताएँ बहुत कम थीं । उनका शरीर कसा हुआ था । और चाहे जहाँ अकेले जाने में उन्हें जरा भी झिझक नहीं होती थी । वे घोड़े की सवारी के लिए भी तैयार रहती थी । इन बहन का विशेष परिचय गोधरा की परिषद मे प्राप्त हुआ । अपना दुख मैंने उनके सामने रखा और दमयंती जिस प्रकार नल की खोज मे भटकी थी, उसी प्रकार चरखे की खोज मे भटकने की प्रतिज्ञा करके उन्होंने मेरा बोझ हलका कर दिया ।

खादी के धागे धागे में
अपनेपन का अभिमान भरा,
माता का इसमें मान भरा
अन्यायी का अपमान भरा। 

खादी के रेशे-रेशे में
अपने भाई का प्यार भरा,
माँ-बहनों का सत्कार भरा
बच्चों का मधुर दुलार भरा। 

कवि सोहनलाल द्विवेदी की उक्त पंक्तियाँ खादी के विषय में बड़ी मर्म की बात कह देती हैं।
थोड़ी-सी दीवानगी और... 
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राजा दिग्विजयदास : क़दमों के निशां

चन्द्रकुमार जैन 
संपर्क - 9301054300

बीती सदी के छठवें दशक के अंतिम छोर पर कोई शहंशाह अपनी नौजवानी में अगर आने वाली सदी के लिए अक्षरों और अंकों की असीम शक्ति की नई कहानी लिखने मचल उठा था, तो उसमें मंज़िले मक़सूद की कितनी गहरी समझ रही होगी। शिक्षा, क्रीड़ा और अध्ययन की महत्ता से सुसंगठित व्यक्तित्व ने स्मृतिशेष महंत राजा दिग्विजयदास को कालजयी व्यक्तित्व बना दिया है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। बकौल साहिर कहा जाये तो उनके लिए तो ये छोटी सी ज़िंदगानी इस बात का सबूत बन गई कि - 

जितना अपनाओगे उतना ही निखर जाएगी, 
जिंदगी खवाब नहीं है कि बिखर जाएगी।  

आज दिग्विजय महाविद्यालय महंत राजा  दिग्विजयदास की उदारता और दानवीरता की अक्षय धरोहर है। यह महाविद्यालय उनके नाम और यश का स्थायी प्रतीक है। उनकी सोच और दूरदृष्टि का साक्षी है। सिर्फ और सिर्फ एक बार कॉलेज के मुख्य द्वार या किले के उस हिस्से को जहाँ अब मुक्तिबोध स्मारक-त्रिवेणी संग्रहालय साहित्य त्रयी की स्मृतियों को वाणी दे रहा है, जी भर के यदि आप निहारें तो राजा साहब को याद करते हुए आप सहज बोल पड़ेंगे कि - 

ये गलत कहा किसी ने कि तेरा पता नहीं है, 
तुझे ढूंढने की हद तक कोई ढूंढता नहीं है। 

संस्कारधानी के शैक्षणिक और सांस्कृतिक विकास के स्वप्नदृष्टा महंत राजा दिग्विजयदास एक कहानी बन कर जिए, ऎसी कहानी जिसे सदियों तक भुलाना संभव नहीं है। उनकी लगन और चाहत ने शहर को अभ्युदय व प्रगति के अभिनव पथ पर अग्रसर किया। महंत राजा सर्वेश्वरदास के एकमात्र पुत्र राजा दिग्विजयदास का जन्म 25 अप्रैल 1933 को हुआ था। ममतामयी माँ रानी जयन्ती देवी ब्रह्मसमाज के संस्थापक श्री केशवचंद्र सेन की नातिन थीं। राजा दिग्विजयदास ने राजकुमार कालेज, रायपुर और दार्जिलिंग में शिक्षा प्राप्त की। इंग्लैंड में विशेष प्रशिक्षण से कृषि में प्रवीणता अर्जित की। अपनी यात्राओं में देश-विदेश की परिस्थितियों से अवगत हुए। 

राजा दिग्विजयदास बारिया नरेश महारावल श्री जयदीपसिंह की बहिन राजकुमारी संयुक्ता देवी के साथ 11 दिसंबर 1953 को परिणय सूत्र में आबद्ध हुए। शिक्षा के साथ शिकार और क्रीड़ा गतिविधियों में उनकी विशेष अभिरुचि थी। लालबाग क्लब उनकी देन थी। वे चाहते थे कि शिक्षा और क्रीड़ा के क्षेत्र में शहर की शान निरंतर बढ़ती रहे। उनकी पहल और प्रेरणा से शिक्षानुरागियों और क्रीड़ा प्रेमी नागरिकों में नवीन स्फूर्ति संचरित हो गई थी। आज राजनांदगांव का नाम महंत राज सर्वेश्वरदास स्मृति अखिल भारतीय हॉकी प्रतियोगिता को लेकर विख्यात है तो उसके पीछे राजा साहब के अविस्मरणीय सहयोग का महत्त्व चिरस्थायी है। इतिहास साक्षी है कि राजा साहब महाकौशल हॉकी एसोसिएशन के संस्थापक अध्यक्ष थे। 

किसी शायर ने खूब कहा है - 

जो मिला मुझसे हो गया मेरा, 
सब को ऐसा हुनर आता नहीं। 

दरअसल, उस दौर को अपनी आँखों से देखने और जीने वालों की मानें तो राजा दिग्विजयदास का व्यक्तित्व कुछ ऐसा ही था कि उनकी भव्यता और दयालुता सबको सहज अपना बना लेती थीं। वे पर दुःख कातर तो थे ही, उनमें सहानुभूति तथा तत्पर सहायता पहुंचाने की अदम्य ललक भी सदैव आकर्षण का केंद्र बनी रहती थी।अच्छे कार्यों और अच्छी कोशिशों को वे तन-मन-धन से सहयोग देने सदा उत्सुक रहते थे। 

राजा साहब दिग्विजय कालेज की शासिका समिति के प्रथम अध्यक्ष थे। अपने नाम से स्थापित होने वाले इस कालेज को उन्होंने पूरे समर्पण भाव से मुक्त हस्त से दान देकर अपने पावों पर खड़ा होने का हरसंभव आधार दिया। विशाल किला दिया। एक अन्य भवन के निर्माण के लिए मोटी रकम दी। कालेज को उन्होंने अपने आलीशान महल की लाइब्रेरी का एक हिस्सा और किताबों की सुरक्षा के लिए आलमारियां भी दीं। उच्च शिक्षा के इस अभिनव केंद्र से उन्हें गहरा लगाव था। वे स्वयं कालेज की गतिविधियों में सहभागिता करते थे। 

राजा साहब अपनी कोशिश को खुद परवान चढ़ते देखते इससे पहले ही काल ने अपनी गति से उन्हें अपने सपनों और अपनों से दूर कर दिया। 22 जनवरी 1958 को वे संसार से विदा हो गए लेकिन, दिल की गहराई से मानना होगा कि हालात बदलने और नए क़दमों के निशां छोड़ने में राजा साहब पूरी तरह से सफल रहे। 

माना कि जिंदगी गहरी झील है और हर शख्स सतह आब पर टूटता बनता बिखरता दायरा है फिर भी बकौल जिगर जालन्धरी अगर कहें तो राजा साहब ने साबित कर दिखाया कि -

आदमी वो नहीं हालात बदल दें जिनको, 
आदमी वो हैं जो हालात बदल देते हैं। 
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थोड़ी-सी दीवानगी और... 
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उछलते खेलते बचपन में बेटा ढूंढती होगी,
तभी तो देख कर पोते को दादी मुस्कुराती है.

डॉ.चन्द्रकुमार जैन 
संपर्क - 9301054300

हाल ही में लम्बी ग़ज़ल वाली किताब मुहाजिरनामा घर ले आया। बहरहाल, मुनव्वर साहब ने अपनी किताब ‘मां’ मे उक्त बेबाक बातें कहीं हैं। उनकी किताब 'शहदाबा' के लिए उन्हें उर्दू भाषा का साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। वाणी प्रकाशन से छपी इस किताब में उनकी करीब 30 ग़ज़लें, 40 नज़्में और एक गीत है। अपने अंदाज़ का बाँकपन बरक़रार रखते हुए मुनव्वर फिर बोले, 'खराब खाना और खराब शायरी बर्दाश्त नहीं कर सकता। 

याद रहे कि 2013 में उर्दू के लिए जावेद अख्तर और हिंदी के लिए मृदुला गर्ग को यह पुरस्कार मिल चुका है। उर्दू अदब में कृष्ण कुमार तूर, खलील मामून, शीन काफ निजाम, गुलजार, बशीर बद्र, निदा फाजली और कैफी आजमी जैसे दिग्गज इस सम्मान की शोभा बढ़ा चुके हैं। उर्दू का पहला साहित्य अकादमी पुरस्कार 1955 में जफर हुसैन खान को मिला था। पेश हैं मुनव्वर की जिंदगी के रदीफ-काफिये - सबसे पहले ये रहे शहदाबा से कुछ शेर -

आंखों को इन्तिज़ार की भट्टी पे रख दिया
मैंने दिए को आंधी की मर्ज़ी पे रख दिया
अहबाब का सुलूक भी कितना अजीब था
नहला धुला के मिट्टी को मिट्टी पे रख दिया
सच बोलने में नशा कई बोतलों का था
बस यह हुआ कि मेरा गला भी उतर गया

और लीजिये पढ़िए राणा साहब की बुनियादी फितरत का बयां करती एक लाज़वाब ग़ज़ल -

हँसते हुए माँ-बाप की गाली नहीं खाते
बच्चे है तो क्यो शौक से मिट्टी नहीं खाते

तुझ से नहीं मिलने का इरादा तो है लेकिन
तुझसे न मिलेंगे ये कसम भी नही खाते

सो जाते है फुटपाथ पे अखबार बिछाकर
मजदूर कभी नींद की गोली नही खाते

बच्चे भी गरीबी को समझने लगे शायद
अब जाग भी जाते है तो सहरी नहीं खाते

दावत तो बड़ी चीज़ है हम जैसे कलंदर
हर एक के पैसे की दवा भी नहीं खाते

अल्लाह ग़रीबों का मददगार है 'राना'
हम लोगों के बच्चे कभी गोली नहीं खाते 

ये रही मुहाजिरनामा की चर्चा जिसे इस लेख के शुरूआत में मैंने जानबूझकर कुछ देर तक मुल्तवी कर रखा था। तो बात ऎसी है कि सन 1947 की कड़वी यादों ने कुछ लोगो को ताउम्र के लिए आंसू दिए जिनमे उनके अपने सीमा पर कर नए मुल्क, नयी आज़ादी की उम्मीद में पाकिस्तान में चले गए परन्तु वहा उनको अपनापन नहीं मिला। भारत से गए इन लोगों को वहा मुहाजिर (निर्वासित ) का नाम दिया गया। मशहूर शायर मुनव्वर राना ने उनके इस दर्द को अपने अल्फाज़ दिए है, कहा जाता है की ये 'मुहाजिरनामा' उन्होंने अपने किसी सम्बन्धी से प्रेरित होकर लिखा था जो कुछ दिन बाद भारत यात्रा पर वापस आये थे। तो कुछेक शेर की थोड़ी सी दीवानगी आज के अंक में मुलाहिज़ा फरमाइए -
 
मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं,
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं ।
 
कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है,
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं ।
 
नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में,
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं ।
 
अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी,
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं ।

अंत में रिश्तों के सरोकार को आवाज़ देते मुनव्वर साहब के कुछ अशआर और साझा कर लूँ तो कोई बात बने -

लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है,
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं, हिन्दी मुस्कुराती है

उछलते खेलते बचपन में बेटा ढूंढती होगी,
तभी तो देख कर पोते को दादी मुस्कुराती है,

तभी जा कर कहीं माँ-बाप को कुछ चैन पड़ता है,
कि जब ससुराल से घर आ के बेटी मुस्कुराती है

चमन में सुबह का मंज़र बड़ा दिलचस्प होता है,
कली जब सो के उठती है, तो तितली मुस्कुराती है

हमें ऐ ज़िन्दगी तुझ पर हमेशा रश्क आता है,
मसाइल से घिरी रहती है,फिर भी मुस्कुराती है

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थोड़ी सी दीवानगी और...
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समाज-कार्य का 
पेशेवर अनुशासन

डॉ.चन्द्रकुमार जैन 
Mo.9301054300

समाज कार्य का अर्थ लोगों को उनकी प्रतिदिन की सामाजिक समस्याओं का हल खोजने में मदद करना है। वर्तमान में समाज कार्य की अवधारणा में व्यापक परिवर्तन आया है। यह कार्य केवल दया या परोपकार की भावना से ही नहीं जुड़ा है बल्कि रोजगार के रूप में भी युवाओं को बहुत आकर्षित कर रहा है।जिन छात्रों की रुचि कॅरियर के साथ-साथ समाजसेवा भी है।

अक्सर लोग समाजशास्त्र एवं समाज-कार्य को एक ही समझ लेते हैं। हालाँकि समाज-कार्य का अधिकांश ज्ञान समाजशास्त्रीय सिद्धांतों से लिया गया है, लेकिन समाजशास्त्र जहाँ मानव-समाज और मानव-संबंधों के सैद्धांतिक पक्ष का अध्ययन करता है, वहीं समाज-कार्य इन संबंधों में आने वाले अंतरों एवं सामाजिक परिवर्तन के कारणों की खोज क्षेत्रीय स्तर पर करने के साथ-साथ व्यक्ति के मनोसामाजिक पक्ष का भी अध्ययन करता है। समाज-कार्य करने वाले का आचरण विद्वान की तरह न होकर समस्याओं में पेशेवर के ज़रिये व्यक्तियों, परिवारों, छोटे समूहों या समुदायों के साथ संबंध स्थापित करने की तरफ़ उन्मुख होता है। 

याद रहे कि 1936 में भारत में समाज-कार्य के शिक्षण एवं प्रशिक्षण हेतु बम्बई में सर दोराब जी टाटा ग्रेजुएट स्कूल ऑफ़ सोशल वर्क की स्थापना हुई। आज देश में सौ से भी अधिक संस्थानों में समाज-कार्य की शिक्षा दी जाती है। समाज-कार्यकर्ता केवल उन्हीं को कहा जाता है जिन्होंने समाज-कार्य की पूरी तरह से पेशेवर शिक्षा प्राप्त की हो, न कि उन्हें जो स्वैच्छिक रूप से समाज कल्याण का कार्य करते हैं। स्वैच्छिक समाज- कल्याण के प्रयासों को समाज-सेवा की संज्ञा दी जाती है, और इन गतिविधियों में लगे लोग समाज-सेवी कहलाते हैं।कहा जा सकता है कि समाज-कार्य व्यक्ति के सामाजिक पर्यावरण से तारतम्य स्थापित करने के प्रयास का नाम है। वह ध्यान रखता है कि यदि इस पर्यावरण से व्यक्ति का सामंजस्य स्थापित नहीं होता, तो समाज टूटने की स्थिति में पहुँच जाएगा। आजकल समाज-कार्य के कार्यक्षेत्र में बहुत वृद्धि हो चुकी है। अब वह व्यक्ति के प्राकृतिक और भौतिक पर्यावरण में होने वाली समस्याओं के निराकरण में भी हस्तक्षेप करता है।

आज दुनिया में हजारों की संख्या में स्वयंसेवी संस्थाएँ मानवीय, सामाजिक, पर्यावरण संबंधी समस्याओं के समाधान में जुटी हुई हैं और संस्थानों को बड़ी संख्या में ऐसे लोगों की आवश्यकता है, जिनमें न केवल सेवा का जज्बा हो बल्कि संबंधित क्षेत्र की जानकारी भी हो। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काम करने वाली संस्थाएँ, जैसे यूनीसेफ, यूएनडीपी, वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड, रेडक्रॉस, लायंस क्लब,क्राई तो हर साल भारतीय एक्सपर्ट की तलाश में बड़े शहरों में सेमिनार का आयोजन करते हैं। कई संस्थाओं में निदेशक, उपनिदेशक, प्रोग्राम ऑफिसर, टीम लीडर जैसे पदों पर अच्छे वेतनमान के साथ नियुक्त किया जाता है। इसके अलावा अन्य कई क्षेत्र हैं, जिसमें छात्रों को को-ऑर्डिनेटर, सर्वे ऑफिसर एवं पब्लिक रिलेशन ऑफिसर जैसे पदों पर काम करने का मौका मिलता है। इस क्षेत्र में कॅरियर बनाने के इच्छुक छात्रों के लिए राष्ट्रीय ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काम करने का मौका मिलता है।

सामाजिक कार्य पाठ्यक्रम का लक्ष्य देश में वैज्ञानिक मानसिकता, व्यावसायिक कौशल, लोकतांत्रिक दृष्टिकोण और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के बारे में लोगों को शिक्षित करना और उन्हें सामाजिक कार्य एजेंसियों के प्रबंधन के लिए तैयार करना है। इससे देश में नए सामाजिक-आर्थिक परिवेश के लिए व्यावसायिक दृष्टि से प्रशिक्षित सामाजिक कार्यकर्ता तैयार करने में मदद मिलती है। सामाजिक कार्य पाठ्यक्रम कई क्षेत्रों में किए जा सकते हैं- बाल विकास, ग्रामीण और शहरी विकास, औद्योगिक विकास, सामाजिक विकास, शिक्षा, परिवार कल्याण और आयोजन, स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य, मानसिक विलंबन, सामाजिक सुरक्षा, पर्यावरण, मानव संसाधन प्रबंधन।

इस क्षेत्र में कॅरियर बनाने के लिए देश में कई संस्थानों में पूर्णकालिक एवं अंशकालिक कोर्स की व्यवस्था है। इसमें मास्टर डिग्री, पीजी डिप्लोमा एवं सर्टिफिकेट कोर्स, तीन तरह के पाठ्यक्रम हैं। मास्टर डिग्री के लिए छात्र की योग्यता किसी संकाय में स्नातक होना अनिवार्य है, जबकि एकवर्षीय पीजी डिप्लोमा के लिए भी योग्यता इसी के समकक्ष होनी चाहिए। सर्टिफिकेट कोर्स के लिए छात्र का बारहवीं पास होने के साथ इस क्षेत्र में अनुभव होना आवश्यक है। कई संस्थान समाज कार्य पाठ्यक्रमों में प्रवेश हेतु भर्ती परीक्षा का भी आयोजन करते हैं।

स्वयंसेवी क्षेत्र में रोजगार के प्रचुर अवसर पैदा हो गए हैं। अब तो गैर सरकारी संगठनों के अलावा बहुराष्ट्रीय निगम और औद्योगिक घराने भी बड़े पैमाने पर कंपनियों के सामाजिक उत्तरदायित्व के निर्वाह, खासकर शिक्षा, कल्याण और स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए आगे आए हैं। अपराध विज्ञान और सुधारात्मक प्रशासन में विशेषज्ञता रखने वाले सामाजिक कार्यकर्ता, कारागरों, सुधारगृहों, पर्यवेक्षणगृहों, बालगृहों तथा रिमांड होम्स जैसे संस्थानों में रोजगार प्राप्त कर सकते हैं। इन संस्थानों में सामाजिक कार्यकर्ता का मुख्य कार्य कैदियों के लिए रचनात्मक एवं सृजनात्मक वातावरण का निर्माण करना है। 

परिवार और बाल कल्याण के क्षेत्र में सामाजिक कार्यकर्ता महिलाओं, बच्चों, वृद्धों और कमजोर व्यक्तियों के जीवन स्तर में सुधार लाने में योगदान कर सकते हैं। चिकित्सा और मनोविश्लेषणात्मक सामाजिक कार्य के क्षेत्र में उनकी नियुक्ति आमतौर पर अस्पतालों, सेनेटोरियम्स, परिवार नियोजन क्लिनिकों, नशीली दवाओं और शराब की लत छुड़ाने वाले केंद्रों में की जाती है। समाज कार्य के पाठ्यक्रम में मानव कल्याण से संबंधित कई विषय शामिल किए गए हैं। भारतीय सामाजिक समस्याएँ, पारिवारिक सहायता एवं मार्गदर्शन, मातृ एवं शिशु कल्याण, अपराध मनोविज्ञान, ग्रामीण एवं शहरी विकास आदि। 

समाज कार्य में उपाधि प्राप्त करने के बाद अंतर्राष्ट्रीय कल्याण की संस्थाओं जैसे यूनिसेफ व यूनेस्को, विकलांग कल्याण केंद्र, अनाथ आश्रम, महिला उद्धार गृह, प्रौढ़ शिक्षा परियोजना, समाज कार्य शिक्षा से संबंधित शिक्षण संस्थाओं, समाज कल्याण विभाग, मातृ एवं शिशु कल्याण विभागों में कॅरियर के अच्छे अवसर हैं। चिकित्सा एवं मनोचिकित्सा के क्षेत्र में अस्पतालों में नियुक्ति हो सकती है। इसके अतिरिक्त गैर सरकारी संस्था (एनजीओ) के माध्यम से भी एड्स जागरूकता, महिला कल्याण, गरीबी उन्मूलन, आपदा प्रबंधन जैसे कार्यों को अंजाम दिया जा सकता है।

सामाजिक कार्य क्षेत्र में आप निजी और सरकारी कंपनियों में कार्मिक अधिकारी समुदाय संगठनकर्ता या समन्वयक, सामाजिक कार्यकर्ता आदि पदों पर भी रोजगार प्राप्त कर सकते हैं। इसके जरिए आप सामाजिक कार्य के प्रति समर्पित भी हो सकते हैं। व्यावसायिक सामाजिक कार्यकर्ता बनने के लिए आपको मानव संसाधन प्रबंधन, अपराध विज्ञान और सुधारात्मक प्रशासन, चिकित्सक और मनोचिकित्सक, सामाजिक कार्य, परिवार और बाल कल्याण, ग्रामीण और शहरी सामुदायिक विकास और स्कूल सामाजिक कार्य जैसे क्षेत्रों में विशेषज्ञता के साथ सामाजिक कार्य में स्नातकोत्तर उपाधि उत्तीर्ण करना आवश्यक है।

वर्तमान में  सामाजिक कार्य शिक्षा के क्षेत्र में भविष्य उज्ज्वल है। अनुसंधान करने वाले विद्यार्थियों को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, अनुसंधान रिसर्च फाउंडेशन, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, सामाजिक न्याय, अधिकारिता और सामाजिक सुरक्षा मंत्रालय, अपराध विज्ञान और सुधारात्मक प्रशासन (गृह मंत्रालय), यूनिसेफ, विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य प्रमुख संस्थानों, स्वयंसेवी संगठनों तथा वित्तीय एजेंसियों द्वारा अनुसंधान फेलोशिप भी प्रदान की जाती है। 

समाज-कार्य  का अनुशासन पूर्ण रूप से प्रशिक्षित
और पेशेवर कार्यकर्ताओं पर भरोसा करता है।
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