मंगलवार, 27 मई 2008

सुभाषित / आचार्य विष्णुकांत शास्त्री

प्रभावित होना और प्रभावित करना जीवंतता का लक्षण है।
कुछ लोग हैं, जो प्रभावित होने को दुर्बलता मानते हैं। मैं ऐसा नहीं मानता।
जो महत् से, साधारण में छिपे असाधारण से प्रभावित नहीं होते,
मैं उन्हें जड़ मानता हूँ। चेतन तो निकट सम्पर्क में आने वालों से
भावात्मक आदान-प्रदान करता हुआ आगे बढ़ता जाता है।
जिस व्यक्ति या परिवेश से अन्तर समृद्ध हुआ हो,
उसे रह-रहकर मन याद करता ही है...करने के लिए विवश है।
जब चारों तरफ़ के कुहरे से व्यक्ति अवसन्न होने लगता है
तब ऐसी यादें मन को ताजगी दे जाती हैं।
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'स्मरण को पाथेय बनने दो' से

सोमवार, 26 मई 2008

जैन सूत्र / अमृता प्रीतम

दुनिया में एकमात्र रचना है,
जो एक लम्बी खामोशी से तरंगित हुई थी ...
ओशो बताते हैं कि महावीर बरसों खामोश रहे।
कोई सूत्र उन्होंने लिख-बोलकर नहीं बताया,
पर उनके ग्यारह शिष्य हमेशा उनके क़रीब रहते थे।
उन्होंने महावीर जी की खामोशी को तरंगित होते
हुए देखाऔर उसमें से जो अपने भीतर सुना,
अकेले-अकेले वह एक जैसा था।
ग्यारह शिष्यों ने जो सुना वह एक जैसा था।
उन्होंने वही कलमबद्ध किया और उसी का नाम जैन सूत्र है।
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'स्मरण गाथा' से

सोमवार, 5 मई 2008

सुभाषित / दुष्यंत कुमार

ज़िंदगी में कभी-कभी ऐसा दौर आता है
जब तकलीफ गुनगुनाहट के रास्ते बाहर आना चाहती है.
उसमें फँस कर गमें जानां और गमें दौरां तक एक हो जाते हैं.
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मुझे अपने बारे में मुगालते नहीं रहे.
मैं मानता हूँ मैं गालिब नहीं हूँ.
उस प्रतिभा का शतांश भी मुझमें नहीं है.
लेकिन मैं यह भी नहीं मानता कि मेरी तकलीफ
गालिब से कम है या मैंने उसे कम शिद्दत से महसूस किया है.
हो सकता है,अपनी-अपनी पीड़ा को लेकर हर आदमी को
यह वहम होता है.........लेकिन इतिहास मुझसे जुड़ी हुई
मेरे समय की तकलीफ का गवाह ख़ुद है.
बस.......अनुभूति की इसी जरा-सी पूंजी के सहारे
मैं उस्तादों और महारथियों के अखाड़े में उतर पड़ा।
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'साए में धूप' के फ्लेप का अंश

शनिवार, 3 मई 2008

सुभाषित / डा.बलदेवप्रसाद मिश्र

साहित्यकार भावयोगी होता है। उसकी साधना ज्ञानयोगी
अथवा कर्मयोगी की साधना से किसी प्रकार कम महत्वपूर्ण नहीं।
भावयोग का तो लोकोत्तर आनंद से सीधा सम्बन्ध रहता है
अतएव वह मुक्तावस्था में स्वतः ही अनायास पहुँच सकता
और अपने सहृदय श्रोताओं अथवा पाठकों को भी
अनायास पहुँचा सकता है।
यही वह साधन है जिसकी साधनावस्था में भी आनंद है
और सिद्धावस्था में भी आनंद है,जिसका साध्य भी आनंद स्वरूप है

और साधन भी आनंदस्वरूप है। परन्तु इस साधना के लिए

शक्ति,अध्ययन और अभ्यास तीनों के ऊँचे सहयोग आवश्यकता रहती है।
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'तुलसी दर्शन' से