थोड़ी-सी दीवानगी और...
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राजा दिग्विजयदास : क़दमों के निशां
चन्द्रकुमार जैन
संपर्क - 9301054300
बीती सदी के छठवें दशक के अंतिम छोर पर कोई शहंशाह अपनी नौजवानी में अगर आने वाली सदी के लिए अक्षरों और अंकों की असीम शक्ति की नई कहानी लिखने मचल उठा था, तो उसमें मंज़िले मक़सूद की कितनी गहरी समझ रही होगी। शिक्षा, क्रीड़ा और अध्ययन की महत्ता से सुसंगठित व्यक्तित्व ने स्मृतिशेष महंत राजा दिग्विजयदास को कालजयी व्यक्तित्व बना दिया है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। बकौल साहिर कहा जाये तो उनके लिए तो ये छोटी सी ज़िंदगानी इस बात का सबूत बन गई कि -
जितना अपनाओगे उतना ही निखर जाएगी,
जिंदगी खवाब नहीं है कि बिखर जाएगी।
आज दिग्विजय महाविद्यालय महंत राजा दिग्विजयदास की उदारता और दानवीरता की अक्षय धरोहर है। यह महाविद्यालय उनके नाम और यश का स्थायी प्रतीक है। उनकी सोच और दूरदृष्टि का साक्षी है। सिर्फ और सिर्फ एक बार कॉलेज के मुख्य द्वार या किले के उस हिस्से को जहाँ अब मुक्तिबोध स्मारक-त्रिवेणी संग्रहालय साहित्य त्रयी की स्मृतियों को वाणी दे रहा है, जी भर के यदि आप निहारें तो राजा साहब को याद करते हुए आप सहज बोल पड़ेंगे कि -
ये गलत कहा किसी ने कि तेरा पता नहीं है,
तुझे ढूंढने की हद तक कोई ढूंढता नहीं है।
संस्कारधानी के शैक्षणिक और सांस्कृतिक विकास के स्वप्नदृष्टा महंत राजा दिग्विजयदास एक कहानी बन कर जिए, ऎसी कहानी जिसे सदियों तक भुलाना संभव नहीं है। उनकी लगन और चाहत ने शहर को अभ्युदय व प्रगति के अभिनव पथ पर अग्रसर किया। महंत राजा सर्वेश्वरदास के एकमात्र पुत्र राजा दिग्विजयदास का जन्म 25 अप्रैल 1933 को हुआ था। ममतामयी माँ रानी जयन्ती देवी ब्रह्मसमाज के संस्थापक श्री केशवचंद्र सेन की नातिन थीं। राजा दिग्विजयदास ने राजकुमार कालेज, रायपुर और दार्जिलिंग में शिक्षा प्राप्त की। इंग्लैंड में विशेष प्रशिक्षण से कृषि में प्रवीणता अर्जित की। अपनी यात्राओं में देश-विदेश की परिस्थितियों से अवगत हुए।
राजा दिग्विजयदास बारिया नरेश महारावल श्री जयदीपसिंह की बहिन राजकुमारी संयुक्ता देवी के साथ 11 दिसंबर 1953 को परिणय सूत्र में आबद्ध हुए। शिक्षा के साथ शिकार और क्रीड़ा गतिविधियों में उनकी विशेष अभिरुचि थी। लालबाग क्लब उनकी देन थी। वे चाहते थे कि शिक्षा और क्रीड़ा के क्षेत्र में शहर की शान निरंतर बढ़ती रहे। उनकी पहल और प्रेरणा से शिक्षानुरागियों और क्रीड़ा प्रेमी नागरिकों में नवीन स्फूर्ति संचरित हो गई थी। आज राजनांदगांव का नाम महंत राज सर्वेश्वरदास स्मृति अखिल भारतीय हॉकी प्रतियोगिता को लेकर विख्यात है तो उसके पीछे राजा साहब के अविस्मरणीय सहयोग का महत्त्व चिरस्थायी है। इतिहास साक्षी है कि राजा साहब महाकौशल हॉकी एसोसिएशन के संस्थापक अध्यक्ष थे।
किसी शायर ने खूब कहा है -
जो मिला मुझसे हो गया मेरा,
सब को ऐसा हुनर आता नहीं।
दरअसल, उस दौर को अपनी आँखों से देखने और जीने वालों की मानें तो राजा दिग्विजयदास का व्यक्तित्व कुछ ऐसा ही था कि उनकी भव्यता और दयालुता सबको सहज अपना बना लेती थीं। वे पर दुःख कातर तो थे ही, उनमें सहानुभूति तथा तत्पर सहायता पहुंचाने की अदम्य ललक भी सदैव आकर्षण का केंद्र बनी रहती थी।अच्छे कार्यों और अच्छी कोशिशों को वे तन-मन-धन से सहयोग देने सदा उत्सुक रहते थे।
राजा साहब दिग्विजय कालेज की शासिका समिति के प्रथम अध्यक्ष थे। अपने नाम से स्थापित होने वाले इस कालेज को उन्होंने पूरे समर्पण भाव से मुक्त हस्त से दान देकर अपने पावों पर खड़ा होने का हरसंभव आधार दिया। विशाल किला दिया। एक अन्य भवन के निर्माण के लिए मोटी रकम दी। कालेज को उन्होंने अपने आलीशान महल की लाइब्रेरी का एक हिस्सा और किताबों की सुरक्षा के लिए आलमारियां भी दीं। उच्च शिक्षा के इस अभिनव केंद्र से उन्हें गहरा लगाव था। वे स्वयं कालेज की गतिविधियों में सहभागिता करते थे।
राजा साहब अपनी कोशिश को खुद परवान चढ़ते देखते इससे पहले ही काल ने अपनी गति से उन्हें अपने सपनों और अपनों से दूर कर दिया। 22 जनवरी 1958 को वे संसार से विदा हो गए लेकिन, दिल की गहराई से मानना होगा कि हालात बदलने और नए क़दमों के निशां छोड़ने में राजा साहब पूरी तरह से सफल रहे।
माना कि जिंदगी गहरी झील है और हर शख्स सतह आब पर टूटता बनता बिखरता दायरा है फिर भी बकौल जिगर जालन्धरी अगर कहें तो राजा साहब ने साबित कर दिखाया कि -
आदमी वो नहीं हालात बदल दें जिनको,
आदमी वो हैं जो हालात बदल देते हैं।
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