डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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राजनांदगांव. मो. 9301054300
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वक्त की ख़ामोशियों को तोड़कर आगे बढ़ो
अपने ग़म, अपनी हँसी को छोड़कर आगे बढ़ो
ज़िन्दगी को इस तरह जीने की आदत डाल लो
हर नदी की धार को तुम मोड़कर आगे बढ़ो
छत्तीसगढ़ में भारत की आजादी की लड़ाई में सबसे पहले जेहाद का बिगुल फूंककर अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने की त्याग वृत्ति के साथ मातृभूमि की सेवा का दिव्य आराधन करने वालों में पंडित सुन्दरलाल शर्मा का नाम इतिहास में सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा. भाग्य के बल पर निर्भर रहने के स्थान पर कर्म के संबल से राष्ट्रीय चेतना को स्वर और दिशा देने वाले ऐसे कर्मवीरों से हमारी यह पावन भूमि गौरवान्वित हुई है.
मार्ग की हर बाधा को पुण्य मानने वाले और हर चुनौती को सौभाग्य मानकर उस पर विजय अभियान को सतत जारी रखने वाले ऐसे धीर-वीर-गंभीर महामानवों ने भारत भूमिऔर छतीसगढ़ महतारी के ऋण से मुक्त होने की अदम्य अभिलाषा को ही जैसे अपने जीवन का परम लक्ष्य बना लिया था. यही कारण है कि अपनी समस्त सुख-सुविधाओं का त्याग पर वे पथ के बाधक को भी साधक बनाने का महान अवसर नहीं चूके, जिससे अंततः भारत माता को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त करने का महाभियान सफल हो सका. पंडित शर्मा ऐसे ही अभियान के महारथी थे जिन्हें त्याग, तप, उत्सर्ग के संगम के साथ-साथ व्यक्तित्व और कृतित्व के इन्द्रधनुषी महामानव के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है.
सच ही कहा गया है कि बाधा जितनी बड़ी हो, उसे पार करने कि प्रसिद्धि उतनी ही बड़ी होती है. कुशल नाविक भयानक तूफानों और झंझावातों में ही मशहूर होते हैं. पंडित शर्मा इसकी जीवंत मिसाल कहे जा सकते हैं. छतीसगढ़ के गांधी के नाम से उन्हें ऐसे ही नहीं पुकारा गया. दरअसल हरिजनों को उनका हक और सम्मान दिलाने के लिए जो साहसिक भूमिका उन्होंने निभायी उसमें उनके अचल-अडिग स्वभाव के साथ-साथ उपेक्षित, तिरस्कृत या बहिस्कृत जन के प्रति उनकी गहन सहानुभूति, संवेदना तथा उनके जीवन स्वप्न से सक्रिय सरोकार का ही परिचय मिलता है.
वरना कट्टर विचारों के उस माहौल में तब जबकि गांधी जी हरिजन उद्धार का शंखनाद कर रहे थे, घर-घर पहुंचकर हरिजनों को जनेऊ पहनाने, उन्हें मंदिरों और वर्जित स्थानों में प्रवेश दिलवाने का भागीरथ अनुष्ठान आखिर कैसे संभव हो पाता ? इस असंभव को पंडित जी ने संभव कर दिखाया. सत्य से मत डिगो-चाहे जियो चाहे मरो का नारा देकर उन्होंने अपने जीवन दर्शन की साफ़-साफ़ तस्वीर दुनिया के सामने रख दी थी.
सचमुच वह असाधारण दिन था जब, जैसा कि इतिहास गवाह है सन १९३३ में पंडित सुन्दरलाल शर्मा के प्रयास से जब गांधी जी का दूसरी बार छत्तीसगढ़ की माटी में पदार्पण हुआ था, तब राजिम-नवापारा में हुई महती सभा को संबोधित करते हुए बापू ने सहज ही कहा था कि पंडित सुन्दरलाल शर्मा उम्र में तो मुझसे छोटे हैं, परन्तु हरिजन उद्धार के कार्य में मुझसे बड़े हैं. उस दौर में गाधी जी का यह कथन कितना महत्वपूर्ण था यह कहने की जरूरत ही नहीं है पर आज भी छत्तीसगढ़ में ऐसे माटी के सपूत के होने का गर्व-बोध समस्त छतीसगढ़ वासियों को होना स्वाभाविक ही है. ऐसे ही प्रयासों और प्रसंगों की यादों को बार-बार ताज़ा किया जाना चाहिए जिससे अपनी धरोहर और शक्ति का परिचय नई पीढी को मिलता रहे.
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राजनांदगांव. मो. 9301054300
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वक्त की ख़ामोशियों को तोड़कर आगे बढ़ो
अपने ग़म, अपनी हँसी को छोड़कर आगे बढ़ो
ज़िन्दगी को इस तरह जीने की आदत डाल लो
हर नदी की धार को तुम मोड़कर आगे बढ़ो
छत्तीसगढ़ में भारत की आजादी की लड़ाई में सबसे पहले जेहाद का बिगुल फूंककर अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने की त्याग वृत्ति के साथ मातृभूमि की सेवा का दिव्य आराधन करने वालों में पंडित सुन्दरलाल शर्मा का नाम इतिहास में सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा. भाग्य के बल पर निर्भर रहने के स्थान पर कर्म के संबल से राष्ट्रीय चेतना को स्वर और दिशा देने वाले ऐसे कर्मवीरों से हमारी यह पावन भूमि गौरवान्वित हुई है.
मार्ग की हर बाधा को पुण्य मानने वाले और हर चुनौती को सौभाग्य मानकर उस पर विजय अभियान को सतत जारी रखने वाले ऐसे धीर-वीर-गंभीर महामानवों ने भारत भूमिऔर छतीसगढ़ महतारी के ऋण से मुक्त होने की अदम्य अभिलाषा को ही जैसे अपने जीवन का परम लक्ष्य बना लिया था. यही कारण है कि अपनी समस्त सुख-सुविधाओं का त्याग पर वे पथ के बाधक को भी साधक बनाने का महान अवसर नहीं चूके, जिससे अंततः भारत माता को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त करने का महाभियान सफल हो सका. पंडित शर्मा ऐसे ही अभियान के महारथी थे जिन्हें त्याग, तप, उत्सर्ग के संगम के साथ-साथ व्यक्तित्व और कृतित्व के इन्द्रधनुषी महामानव के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है.
सच ही कहा गया है कि बाधा जितनी बड़ी हो, उसे पार करने कि प्रसिद्धि उतनी ही बड़ी होती है. कुशल नाविक भयानक तूफानों और झंझावातों में ही मशहूर होते हैं. पंडित शर्मा इसकी जीवंत मिसाल कहे जा सकते हैं. छतीसगढ़ के गांधी के नाम से उन्हें ऐसे ही नहीं पुकारा गया. दरअसल हरिजनों को उनका हक और सम्मान दिलाने के लिए जो साहसिक भूमिका उन्होंने निभायी उसमें उनके अचल-अडिग स्वभाव के साथ-साथ उपेक्षित, तिरस्कृत या बहिस्कृत जन के प्रति उनकी गहन सहानुभूति, संवेदना तथा उनके जीवन स्वप्न से सक्रिय सरोकार का ही परिचय मिलता है.
वरना कट्टर विचारों के उस माहौल में तब जबकि गांधी जी हरिजन उद्धार का शंखनाद कर रहे थे, घर-घर पहुंचकर हरिजनों को जनेऊ पहनाने, उन्हें मंदिरों और वर्जित स्थानों में प्रवेश दिलवाने का भागीरथ अनुष्ठान आखिर कैसे संभव हो पाता ? इस असंभव को पंडित जी ने संभव कर दिखाया. सत्य से मत डिगो-चाहे जियो चाहे मरो का नारा देकर उन्होंने अपने जीवन दर्शन की साफ़-साफ़ तस्वीर दुनिया के सामने रख दी थी.
सचमुच वह असाधारण दिन था जब, जैसा कि इतिहास गवाह है सन १९३३ में पंडित सुन्दरलाल शर्मा के प्रयास से जब गांधी जी का दूसरी बार छत्तीसगढ़ की माटी में पदार्पण हुआ था, तब राजिम-नवापारा में हुई महती सभा को संबोधित करते हुए बापू ने सहज ही कहा था कि पंडित सुन्दरलाल शर्मा उम्र में तो मुझसे छोटे हैं, परन्तु हरिजन उद्धार के कार्य में मुझसे बड़े हैं. उस दौर में गाधी जी का यह कथन कितना महत्वपूर्ण था यह कहने की जरूरत ही नहीं है पर आज भी छत्तीसगढ़ में ऐसे माटी के सपूत के होने का गर्व-बोध समस्त छतीसगढ़ वासियों को होना स्वाभाविक ही है. ऐसे ही प्रयासों और प्रसंगों की यादों को बार-बार ताज़ा किया जाना चाहिए जिससे अपनी धरोहर और शक्ति का परिचय नई पीढी को मिलता रहे.
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