मंगलवार, 14 अक्टूबर 2014

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रखर प्रवक्ता पंडित दीनदयाल उपाध्याय 

डॉ.चन्द्रकुमार जैन 

भारत की आजादी के समय विश्व दो ध्रुवी विचारों में बंटा था पूंजीवाद और साम्यवाद। यद्यपि हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के जन-नायकों का इस विषय पर मत था कि भारत अपने पुरातन जीवन-मूल्यों से युक्त रास्ते पर चले। परंतु इसे विडंबना  हैं कि देश ऊपर लिखे दोनों विचारों के व्यामोह में फंस कर घड़ी के पेंडुलम की तरह झूलता रहा। आजादी के बाद ही प्रसिध्द चिंतक, राजनीतिज्ञ एवं समाजसेवक पं. दीनदयाल उपाध्याय ने इन दोनों विचाराें,पूंजीवाद एवं साम्यवाद के विकल्प के रूप में एकात्म मानववाद का दर्शन रखा था।उन्होंने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर जोर दिया।अब जब कि साम्यवाद ध्वस्त हो चुका है, पूंजीवाद को विखरते-टूटते हम देख ही रहे हैं, भारत एवं विश्व के समक्ष इस दर्शन की प्रासंगिकता पर नए सिरे से विचार का समय आ गया है। 

विश्व ग्राम की अजब विडम्बना 
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आज सर्वविदित है कि संचार एवं सम्पर्क की दृष्टि से विश्व एक ग्राम बनता जा रहा है, वहीं, दूसरी ओर व्यक्ति का व्यवहार एवं कार्य स्वकेन्द्रित होते जा रहे हैं. सुख की खोज में अधिक से अधिक भौतिक साधनों की प्राप्ति ही मनुष्य के जीवन का उद्देश्य बन गया है. परिणाम स्वरूप मनुष्य के व्यक्तित्व, समाज तथा सम्पूर्ण विश्व में आन्तरिक विरोधाभास दिखलाई पड़ रहा है. हमारे प्राचीन चिंतकों ने मनुष्य के आन्तरिक व्यक्तित्व के पहलुओं तथा व्यक्ति समाज एवं सृष्टि के बीच गूढ़ सम्बन्धों पर गहन चिन्तन किया. इन विचारों के आधार पर पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद के दर्शन का प्रतिपादन किया. अर्थ के एकांगी मोह में व्यर्थ हो रहे मानव जीवन को उन्होंने सही माने में समर्थ बनाने का मार्गदर्शन किया। 

आर्थिक जीवन के तीन लक्ष्य 
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पंडित दीनदयाल जी ने एक ऐसे आर्थिक विकास के प्रारूप की बात कही जो व्यक्ति के आन्तरिक व्यक्तित्व एवं परिवार, समाज तथा सृष्टि के साथ  सम्बन्धों में कोई संघर्ष उत्पन्न न करे. हमारे शास्त्रों में धर्म के साथ अर्थ को जोड़कर कामनाओं के पूर्ति की बात कही गई है, जिसका अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है. किन्तु अर्थ यानि पैसा आज जीवन का आवश्यक आधार नहीं अपितु सम्पूर्ण जीवन का लक्ष्य बन गया है. पं. दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार आर्थिक विकास के तीन लक्ष्य हैं. हमारी आर्थिक योजनाओं का प्रथम लक्ष्य राजनीतिक स्वतंत्रता की रक्षा का सामर्थ्य उत्पन्न करना, दूसरा लक्ष्य प्रजातंत्रीय पद्धति के मार्ग में बाधक न होना और तीसरा हमारे जीवन के कुछ सांस्कृतिक मूल्य जो राष्ट्रीय जीवन के कारण, परिणाम और सूचक हैं तथा विश्व के लिये भी उपादेय हैं, उनकी रक्षा करना होना चाहिये. यदि उन्हें गवांकर कर हमने अर्थ कमाया तो वह अनर्थकारी और निरर्थक होगा. 

अधिकार का जनक है कर्तव्य 
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उल्लेखनीय है कि एकात्म मानवतावाद व्यक्ति के विभिन्न रूपों और समाज की अनेक संस्थाओं में स्थायी संघर्ष या हित विरोध नहीं मानता। यदि यह कहीं दीखता है तो वह विकृति का प्रतीक  है। वर्ग संघर्ष की कल्पना ही धोखा है। राष्ट्र के निर्माण व्यक्तियों या संस्थाओं में संघर्ष हो तो यज्ञ चलेगा कैसे? वर्ग की कल्पना ही संघर्ष की जन्मदात्री है। हम मानते हैं कि समानता न होते हुए भी एकात्मता हो सकती है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का बाल्यकाल बेहद कष्टों में गुजरा. बहुत छोटी सी उम्र में पिता का साया सिर से उठ गया था. अपने प्रयासों से उन्होंने शिक्षा-दीक्षा हासिल की. बाद के समय में भारतीय विचारों से ओतप्रेत नेताओं का साथ मिला. यहीं से उनके जीवन में बदलाव आया लेकिन जो कष्ट उन्होंने बचपन में उठाये थे, उन कष्टों के चलते वे पूरी जिंदगी सादगी से जीते रहे. विद्यार्थियों के प्रति उनका विशेष अनुराग था. वे चाहते थे कि समाज में शिक्षा का अधिकाधिक प्रसार हो ताकि लोग अधिकारों के साथ कर्तव्यों के प्रति जागरूक हो सकें. उन्हें इस बात का रंज रहता था कि समाज में लोग अधिकारों के प्रति तो चौंकन्ने हैं लेकिन कर्तव्य पूर्ति की भावना नगण्य हैं. उनका मानना था कि कर्तव्यपूर्ति के साथ ही अधिकार स्वयं ही मिल जाता है. 

एकात्म मानववाद का सार 
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पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि भारतवर्ष विश्व में सर्वप्रथम रहेगा तो अपनी सांस्कृतिक संस्कारों के कारण. उनके द्वारा स्थापित एकात्म मानववाद की परिभाषा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ज्यादा सामयिक है. उन्होंने कहा था कि मनुष्य का शरीर,मन, बुद्धि और आत्मा ये चारों अंग ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है. जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है , बुद्धि हाथ को निर्देशित करती है कि तब हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुँच जाता है और कांटें को निकालने की चेष्टा करता है. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. सामान्यत: मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारों की चिंता करता है. मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की संज्ञा दी. 

पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि को समझना और भी जरूरी हो जाता है. वे कहते हैं कि विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं। अर्थ, काम और मोक्ष के विपरीत धर्म की प्रमुख भावना ने भोग के स्थान पर त्याग, अधिकार के स्थान पर कर्तव्य तथा संकुचित असहिष्णुता के स्थान पर विशाल एकात्मता प्रकट की है। पंडित जी का विश्वास अडिग है कि इनके साथ ही हम विश्व में गौरव के साथ खड़े हो सकते हैं। 
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हिन्दी विभाग, दिग्विजय कालेज,
राजनांदगांव, मो.9301054300 

रविवार, 6 अप्रैल 2014

किताबों की दुनिया में अक्षर भविष्य की अनंत लकीरें 

डॉ.चन्द्रकुमार जैन 
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किताबों की दुनिया व्यक्ति को केवल ज्ञान का भंडार ही नहीं उपलब्ध कराती बल्कि किताबें किसी भी व्यक्ति की वे साथी हैं जिनके कारण व्यक्ति स्वयं को कभी अकेला महसूस नहीं करता। पुस्तकें अथवा किताबें किसी व्यक्ति के लिए ज्ञान का वह भंडार हैं जिसके कारण व्यक्ति स्वयं को अत्यधिक सहज एवं ज्ञान से परिपूर्ण पाता है।

पुस्तकालय समाज की अनिवार्य आवश्यकता है। मनुष्य को भोजन कपड़े और आवास की व्यवस्था हो जाती है तो वह जिन्दा रह जाता है, शेष उन्नति तो वह उसके बाद सोचता है। समाज यदि विचारशील है तो वह शांति और सुव्यवस्था की अन्य आवश्यकतायें बाद में भी पूरी कर सकता है, इसलिये पुस्तकालय समाज की पहली आवश्यकता है, क्योंकि उससे ज्ञान और विचारशीलता की सर्वोपरि आवश्यकता की पूर्ति होती है। 

पुस्तकें आज केवल ज्ञान प्राप्ति का उत्तम साधन ही नहीं बल्कि आय के सृजन का भी उम्दा स्रोत बनती जा रही हैं। देश में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के पश्चात तो पुस्तकों से संबंधित रोजगार का वर्चस्व और भी अधिक हो गया है। आज किसी भी व्यक्ति के लिए अपनी इच्छानुसार ज्यादा से ज्यादा पुस्तकें खरीद पाना संभव नहीं है और व्यक्ति की इन्हीं इच्छाओं की पूर्ति करती है ‘लाइब्रेरी’। लाइब्रेरी पुस्तक ज्ञान का वह भंडार केन्द्र है, जहां से किताबें तथा पत्र-पत्रिकाएं आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं। अब तो सरकार की ओर से भी प्रत्येक क्षेत्रों में पुस्तकालयों की स्थापना की जा रही है।

ज्ञान-विज्ञान की असीम प्रगति के साथ पुस्तकालयों की सामाजिक उपयोगिता और अधिक बढ़ गयी हैI युग-युग कि साधना से मनुष्य ने जो ज्ञान अर्जित किया है वह पुस्तकों में संकलित होकर पुस्तकालयों में सुरक्षित हैI वे जनसाधारण के लिए सुलभ होती हैंI पुस्तकालयों में अच्छे स्तर कि पुस्तकें रखी जाती हैं; उनमें कुछेक पुस्तकें अथवा ग्रन्थमालाएं इतनी महँगी होती हैं कि सर्वसाधारण के लिए उन्हें स्वयं खरीदकर पढ़ना संभव नहीं होताI यह बात संदर्भ ग्रंथों पर विशेष रूप से लागु होती हैI बड़ी-बड़ी जिल्दों के शब्दकोशों और विश्वकोशों तथा इतिहास-पुरातत्व कि बहुमूल्य पुस्तकों को एक साथ पढ़ने का सुअवसर पुस्तकालयों में ही संभव हो पाता हैI

विस्तृत तथा विशेष ज्ञान प्रदान करने में पुस्तकालयों की भूमिका को व्यापक रूप में स्वीकार किया जाता है। 

आपके लिए रोजगार 
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स्कूलों, कॉलेजों एवं सार्वजनिक निगमों में तो आज लाइब्रेरी होती ही हैं इसलिए लाइब्रेरी की संख्या बढऩे के साथ ही इसमें काम करने वाले लोगों की मांग भी बढ़ी है। लाइब्रेरी का प्रबंधन प्रशिक्षित लोगों के हाथ में होता है। एक बड़ी लाइब्रेरी में काम करने वालों की संख्या काफी अधिक होती है।

एक अच्छी लाइब्रेरी में लाइब्रेरियन के साथ-साथ असिस्टैंट, डॉक्यूमैंट ऑफिसर, काऊंटर असिस्टैंट आदि स्टाफ होता है। अब तो देश के बड़े-बड़े पुस्तकालयों को कम्प्यूटर नैटवर्क के जरिए भी जोड़ा जा रहा है ताकि पाठकों को आसानी से मैटर उपलब्ध हो सके। विषयों की बढ़ती जटिलता के कारण अब यह पहले की भांति सरल नहीं रह गया है।

कार्यक्षेत्र
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किताबों की खरीद, विषयों के अनुसार उनका पृथककरण अथवा कैटेगराइजेशन, इनकी कैटलॉगिंग रखने की जगह का उचित प्रकार से निर्धारण आदि करने के मूल में ही पुस्तकालय विज्ञान का सार है।

योग्यता
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इस क्षेत्र में स्नातक होने के बाद आ सकते हैं। लाइब्रेरी विज्ञान की पढ़ाई देश के विभिन्न संस्थानों में होती है।

पाठ्यक्रम
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इसमें मुख्य रूप से बैचलर ऑफ लाइब्रेरी साइंस (बी.लिब.) कराया जाता है। इसके अतिरिक्त कई विश्वविद्यालयों में एम.लिब. और पीएच.डी. की भी सुविधा है। इसमें प्रवेश लिखित परीक्षा के आधार पर होता है। लिखित परीक्षा में सामान्य ज्ञान से संबंधित प्रश्न पूछे जाते हैं।

यह क्षेत्र विशेष रूप से महिलाओं के लिए अधिक आकर्षक होता है। महिलाएं इसमें बढ़-चढ़ कर भाग लेती हैं। इसमें नौकरी की संभावनाएं भी अधिक हैं। संदर्भ सहायक और प्रलेखन सहायक आदि पदों पर भी नियुक्ति बी.लिब. के छात्रों की ही होती है। यह एक वर्षीय कोर्स है।

लाइब्रेरियनशिप में पदनाम पुस्तकालयाध्यक्ष (लाइब्रेरियन), प्रलेखन अधिकारी, सहायक पुस्तकालयाध्यक्ष, उप पुस्तकालयाध्यक्ष, वैज्ञानिक (पुस्तकालय विज्ञान/प्रलेखन), पुस्तकालय एवं सूचना अधिकारी, ज्ञान प्रबंधक/अधिकारी सूचना कार्यपालक, निदेशक/सूचना सेवा अध्यक्ष, सूचना अधिकारी तथा सूचना विश्लेषक हो सकते हैं। स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालयों में; केन्द्रीय सरकारी पुस्तकालयों में,बैंकों के प्रशिक्षण केन्द्रों में; राष्ट्रीय संग्रहालय तथा अभिलेखागारों में; विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत गैर-सरकारी संगठनों में; आई.सी.ए.आर., सी.एस.आई.आर., डी.आर.डी.ओ.,आई.सी.एस.एस.आर.,आई.सी.एच.आर,आई.सी.एम.आर, आई.सी.एफ.आर.ई. आदि जैसे अनुसंधान तथा विकास केंद्रों में; विदेशी दूतावासों तथा उच्चायोगों में; विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनेस्को, संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व बैंक आदि जैसे अंतर्राष्ट्रीय केन्द्रों में; मंत्रालयों तथा अन्य सरकारी विभागों के पुस्तकालयों में; राष्ट्रीय स्तर के प्रलेखन केंद्रों में; पुस्तकालय नेटवर्क में; समाचार पत्रों के पुस्तकालय में ,न्यूज चैनल्स में; रेडियो स्टेशन के पुस्तकालयों में,सूचना प्रदाता संस्थाओं में इंडेक्स, सार संदर्भिका आदि तैयार करने वाली प्रकाशन कंपनियों में डिजिटल लाइब्रेरी ऑफ इंडिया आदि जैसी विभिन्न डिजिट ललाइब्रेरी परियोजना में,प्रशिक्षण अकादमियों में। 

संस्थान
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1 इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय, मैदान गढ़ी, नई दिल्ली

2  बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, उत्तर प्रदेश

3 जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, जामिया नगर, नई दिल्ली

4 दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

5 मुम्बई विश्वविद्यालय, एम जी रोड, फोर्ट, मुम्बई, महाराष्ट्र

6 शिवाजी विश्वविद्यालय, विद्या नगर, ग्वालियर, मध्य प्रदेश

7 बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर, बिहार और कुछ अन्य। 

वेतन
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वेतन संगठनों की प्रकृति के आधार पर भिन्न-भिन्न है। अनेक कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों ने पुस्तकालय-स्टाफ के लिए विअआ वेतनमान लागू किए हैं। केन्द्रीय सरकार की बड़ी संस्थापनाओं की संघटक इकाइयां जैसे वैज्ञानिक एवं औद्योगिकी अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर), रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ), भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) वैज्ञानिक स्टाफ पर यथा लागू वेतनमान देती है। कार्य-निष्पादन के आवधिक अंतराल पर मूल्यांकन के आधार पर उन्नति के अवसर इस कार्य को आकर्षक बनाते हैं।

अच्छा शैक्षिक रिकार्ड तथा कम्प्यूटर एवं सूचना प्रौद्योगिकी में पर्याप्त कौशल रखने वाले व्यक्ति इस व्यवसाय में आकर्षक करियर बना सकते हैं। प्रसंगवश यह भी कि मस्तिष्क को संस्कारवान् और ज्ञान से परिपूर्ण कर लेने पर मनुष्य व्यक्तिगत उन्नति ही नहीं, सामाजिक और राष्ट्रीय समृद्धि का भी द्वार खोल लेता है। इन लाभों को देखते हुए भारतवर्ष में भी पुस्तकालयों का जाल बिछाने की आवश्यकता अनुभव हो रही है। यदि कुछ विचारवाद व्यक्ति अथवा राजनैतिक नेता इसे एक अभियान का स्वरूप प्रदान कर दें तो देश देखते देखते धरती से आकाश में पहुँच सकता है।

दिल से 
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ज़िंदगी दो दिन की है। 
एक दिन आपके हक़ में है 
और एक दिन आपके खिलाफ। 
जिस दिन हक़ में हो गरूर मत करना 
और जिस दिन खिलाफ हो,थोड़ा सब्र जरूर करना। 
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रविवार, 16 मार्च 2014

जीवन व्यवहार के दिशादर्शक ओशो के ग्यारह सूत्र 

डॉ.चन्द्रकुमार जैन 


ओशो की वाणी में से कुछ बहुमूल्य चुनना जितना आसान है,उतना ही मुश्किल भी। उनकी वाणी के अथाह सागर में से कुछ भी कहीं से भी ले लें, हर वाक्य ग्रंथ की तरह है। उनके साहित्य के नियमित व सतत अध्ययन के क्रम में मैंने चुने हैं उनके ये 11 स्वर्णिम सूत्र, जिन्हें अपनाकर बिलकुल सम्भव है आप भी अपने व्यावहारिक जीवन को सफल बना सकते हैं। 

अभी और यहीं
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मनुष्य या तो अपने बीते हुए पलों में खोया रहता है या फिर अपने भविष्य की चिंताओं में डूबा रहता है। दोनों सूरतों में वह दुखी रहता है। ओशो कहते हैं कि वास्तविक जीवन वर्तमान में है। उसका संबंध किसी बीते हुए या आने वाले कल से नहीं है। जो वर्तमान में जीता है वही हमेशा खुश रहता है।

भागो नहीं, जागो
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हम हमेशा अपने दुखों और जिम्मेदारियों से भागते रहते हैं, उनसे बचने के बहाने खोजते रहते हैं। अपनी गलतियों और कमियों के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराते रहते हैं, लेकिन ऐसा करके भी हम खुश नहीं रह पाते। ओशो कहते हैं कि परिस्थितियों से भागना नहीं चाहिए।

मैं नहीं, साक्षी भाव
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मनुष्य के दुख का एक कारण यह भी है कि वह किसी भी चीज को, फिर वह इंसान हो या परिस्थिति, ज्यों का त्यों नहीं स्वीकारता। वह उसमें अपनी सोच अवश्य जोड़ देता है, जिसके कारण वह उसका हिस्सा बनने से चूक जाता है और दुखी हो जाता है। ओशो कहते हैं कि जो हो रहा है, उसे होने देना चाहिए, कोई अवरोध नहीं बनना चाहिए।

दमन, नहीं सृजन
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मनुष्य सदा तनाव में रहता है। कभी ईर्ष्या से तो कभी क्रोध से भरा ही रहता है। उसमें भटकने और आक्रामक होने की संभावना हमेशा छुपी रहती है। वह चाहकर भी आनंदित और सुखी नहीं रह पाता। ओशो कहते हैं कि मनुष्य एक ऊर्जा है। हम यदि उस ऊर्जा को दबाएंगे तो वह कहीं न कहीं किसी और विराट रूप में प्रकट होगी ही।

शिकायत नहीं, धन्यवाद
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ऐसा कौन है, जिसका मन शिकायतों से नहीं भरा! घर हो या दफ्तर, भगवान हो या संबंध, हम हमेशा सबसे शिकायत ही करते हैं। हमारी नजर हमेशा इस बात पर होती है कि हमें हमारे अनुसार क्या नहीं मिला। ओशो कहते हैं कि हमारी नजर सदा उस पर होनी चाहिए जो हमको मिला है।

ध्यान एकमात्र समाधान
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अपनी इच्छाओं के पूरा होने के लिए लोग हमेशा से प्रार्थना, पूजा व कर्मकांड आदि को प्राथमिकता देते रहे हैं। ध्यान तो लोगों के लिए एक नीरस या उदास कर देने वाला काम है, तभी तो लोग पूछते हैं कि ध्यान करने से होगा क्या? ओशो ने ध्यान को जीवन में सबसे जरूरी बताया,यहां तक कि ध्यान को जीवन का आधार भी माना।

दूसरे को नहीं, खुद को बदलें
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देखा जाए तो परोक्ष रूप से मनुष्य के तमाम दुखों और तकलीफों का आधार यह सोच रही है कि मेरे दुख का कारण सामने वाला है। हम परिस्थितियों या किस्मत के साथ भी यही रवैया रखते हैं कि वह बदलें हम नहीं।

अतिक्रमण नहीं, संतुलन
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अति हर चीज की बुरी होती है। यह बात जानते हुए भी मनुष्य हर चीज की अति सुख को पाने या बनाए रखने के लिए करता है। ओशो कहते हैं सुख की चाह ही दुख की जड़ है। सुख अपने साथ दुख भी लाता है। ओशो कहते हैं न पाने का सुख हो, न खोने का दुख, यही अवस्था संन्यास की अवस्था है।

मनुष्यता हो पहचान 
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मनुष्य ने अपनी पहचान को धर्म की पहचान से व्यक्त कर रखा है। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान, कोई सिख तो कोई ईसाई। धर्म के नाम पर आपसी भेदभाव ही बढ़े हैं। नतीजा यह है कि आज धर्म पहले है मनुष्य और उसकी मनुष्यता बाद में। वह कहते हैं, आनंद मनुष्य का स्वभाव है और आनंद की कोई जाति नहीं उसका कोई धर्म नहीं।

सहें नहीं, स्वीकारें
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बचपन से ही हमें सहना सिखाया जाता है। सहने को एक अच्छा गुण कहा जाता है। बरसों से यही दोहराया जाता रहा है कि यदि हर कोई सहनशील हो जाए तो न केवल व्यक्तिगत तौर पर बल्कि वैश्विक तौर पर धरती पर शांति हो सकती है, लेकिन आज परिणाम सामने है। ओशो बोध के पक्ष में हैं।

जीवन ही है प्रभु
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ओशो कहते हैं कि आदमी बहुत अजीब है, वह इंसान की बनाई चीजों को तो मानता व पूजता है लेकिन स्वयं को, ईश्वर की बनाई सृष्टि और उसमें मौजूद प्रकृति की तरफ कभी भी आंख उठाकर नहीं देखता। सच यह है कि परमात्मा को मानने का मतलब ही हर चीज के लिए 'हां', पूर्ण स्वीकार भाव और यह जन्म जीवन उसका जीता-जागता सबूत है।