- डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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आज सवेरे की ही तो बात है. रविवार की सुबह. चाय की चुस्कियों के साथ-साथ
श्री वागीश की एक लघु कथा पढ़ रहा था. वह दिल को छू गई. हुआ यों कि
एक बालक नित्य विद्यालय पढ़ने जाता था। घर में उसकी माता थी। माँ अपने
बेटे पर प्राण न्योछावर किए रहती थी, उसकी हर माँग पूरी करने में आनंद का
अनुभव करती। पुत्र भी पढ़ने-लिखने में बड़ा तेज़ और परिश्रमी था। खेल के
समय खेलता, लेकिन पढ़ने के समय का ध्यान रखता।
एक दिन दरवाज़े पर किसी ने - 'माई! ओ माई!' पुकारते हुए आवाज़ लगाई तो
बालक हाथ में पुस्तक पकड़े हुए द्वार पर गया, देखा कि एक फटेहाल बुढ़िया
काँपते हाथ फैलाए खड़ी थी।
उसने कहा, 'बेटा! कुछ भीख दे दे।'
बुढ़िया के मुँह से बेटा सुनकर वह भावुक हो गया और माँ से आकर कहने लगा,
'माँ! एक बेचारी गरीब माँ मुझे बेटा कहकर कुछ माँग रही है।'
उस समय घर में कुछ खाने की चीज़ थी नहीं, इसलिए माँ ने कहा, 'बेटा!
रोटी-भात तो कुछ बचा नहीं है, चाहे तो चावल दे दो।'
पर बालक ने हठ करते हुए कहा - 'माँ! चावल से क्या होगा? तुम जो अपने हाथ
में सोने का कंगन पहने हो, वही दे दो न उस बेचारी को। मैं जब बड़ा होकर
कमाऊँगा तो तुम्हें दो कंगन बनवा दूँगा।'
माँ ने बालक का मन रखने के लिए सच में ही सोने का अपना वह कंगन कलाई से
उतारा और कहा, 'लो, दे दो।'
बालक खुशी-खुशी वह कंगन उस भिखारिन को दे आया। भिखारिन को तो मानो एक
ख़ज़ाना ही मिल गया। कंगन बेचकर उसने परिवार के बच्चों के लिए अनाज,
कपड़े आदि जुटा लिए। उसका पति अंधा था। उधर वह बालक पढ़-लिखकर बड़ा
विद्वान हुआ, काफ़ी नाम कमाया।
एक दिन वह माँ से बोला, 'माँ! तुम अपने हाथ का नाप दे दो, मैं कंगन बनवा
दूँ।' उसे बचपन का अपना वचन याद था।
पर माता ने कहा, 'उसकी चिंता छोड़। मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूँ कि अब मुझे
कंगन शोभा नहीं देंगे। हाँ, कलकत्ते के तमाम ग़रीब बालक विद्यालय और
चिकित्सा के लिए मारे-मारे फिरते हैं, उनके लिए तू एक विद्यालय और एक
चिकित्सालय खुलवा दे जहाँ निशुल्क पढ़ाई और चिकित्सा की व्यवस्था हो।'
माँ के उस पुत्र का नाम ईश्वरचंद्र विद्यासागर।
तो बात ऎसी है कि दुनिया में हर चीज़ के उपयोग और उपभोग की कोई न कोई
सीमा होती है. उसके बाद अक्सर सारी चीजें बेमानी सी लगती हैं. पर ये भी
खूब है कि आदमी अंतिम सांस तक उन चीजों से दामन झटकना नहीं चाहता. बल्कि
जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, चीजों पर, जाने-अनजाने में उसकी पकड़ और मज़बूत
होती जाती है. बल्कि कहना चाहिए उसके मोह का दायरा उतना ही बढ़ता जाता
है. कबीर ने कहा है- अब मैं जानी देह बुढानी. पर ऐसे कितने लोग हैं इस
दुनिया में जो जीवन रहते ही जीवन के छूटते जाने की सच्चाई को सच्चे मन
से स्वीकार कर पाते हैं ? नहीं, यह सचमुच बहुत मुश्किल काम है.
समय और समझ का रिश्ता बहुत माने वाली बात है पर जैसा कि प्रख्यात जैन
साध्वी मणिप्रभा श्री जी कहती हैं कि समझ आती है, हर आदमी को समझ आती है
लेकिन समझ आने की उम्र में समझ नहींआती.है न पते की बात ?पर जैसा कि ऊपर
दी गई छोटी सी कहानी में सन्देश है कि जो जीवन रहते जीवन के उपभोग की
वस्तुओं की सीमाओं और उनके उपयोग की सही और सार्थक दिशाओं की खोज कर लेते
हैं उनकी कमाई, मानवता की भलाई के काम आ जाती है वरना कई बार ऐसा भी देखा
गया है कि सारी कमाई यो ही धरी रह जाती है और आदमी जीवन के पार चाला जाता
है. आखिर ये कहाँ तक सही है, ज़रा सोचें तो सही !
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आज सवेरे की ही तो बात है. रविवार की सुबह. चाय की चुस्कियों के साथ-साथ
श्री वागीश की एक लघु कथा पढ़ रहा था. वह दिल को छू गई. हुआ यों कि
एक बालक नित्य विद्यालय पढ़ने जाता था। घर में उसकी माता थी। माँ अपने
बेटे पर प्राण न्योछावर किए रहती थी, उसकी हर माँग पूरी करने में आनंद का
अनुभव करती। पुत्र भी पढ़ने-लिखने में बड़ा तेज़ और परिश्रमी था। खेल के
समय खेलता, लेकिन पढ़ने के समय का ध्यान रखता।
एक दिन दरवाज़े पर किसी ने - 'माई! ओ माई!' पुकारते हुए आवाज़ लगाई तो
बालक हाथ में पुस्तक पकड़े हुए द्वार पर गया, देखा कि एक फटेहाल बुढ़िया
काँपते हाथ फैलाए खड़ी थी।
उसने कहा, 'बेटा! कुछ भीख दे दे।'
बुढ़िया के मुँह से बेटा सुनकर वह भावुक हो गया और माँ से आकर कहने लगा,
'माँ! एक बेचारी गरीब माँ मुझे बेटा कहकर कुछ माँग रही है।'
उस समय घर में कुछ खाने की चीज़ थी नहीं, इसलिए माँ ने कहा, 'बेटा!
रोटी-भात तो कुछ बचा नहीं है, चाहे तो चावल दे दो।'
पर बालक ने हठ करते हुए कहा - 'माँ! चावल से क्या होगा? तुम जो अपने हाथ
में सोने का कंगन पहने हो, वही दे दो न उस बेचारी को। मैं जब बड़ा होकर
कमाऊँगा तो तुम्हें दो कंगन बनवा दूँगा।'
माँ ने बालक का मन रखने के लिए सच में ही सोने का अपना वह कंगन कलाई से
उतारा और कहा, 'लो, दे दो।'
बालक खुशी-खुशी वह कंगन उस भिखारिन को दे आया। भिखारिन को तो मानो एक
ख़ज़ाना ही मिल गया। कंगन बेचकर उसने परिवार के बच्चों के लिए अनाज,
कपड़े आदि जुटा लिए। उसका पति अंधा था। उधर वह बालक पढ़-लिखकर बड़ा
विद्वान हुआ, काफ़ी नाम कमाया।
एक दिन वह माँ से बोला, 'माँ! तुम अपने हाथ का नाप दे दो, मैं कंगन बनवा
दूँ।' उसे बचपन का अपना वचन याद था।
पर माता ने कहा, 'उसकी चिंता छोड़। मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूँ कि अब मुझे
कंगन शोभा नहीं देंगे। हाँ, कलकत्ते के तमाम ग़रीब बालक विद्यालय और
चिकित्सा के लिए मारे-मारे फिरते हैं, उनके लिए तू एक विद्यालय और एक
चिकित्सालय खुलवा दे जहाँ निशुल्क पढ़ाई और चिकित्सा की व्यवस्था हो।'
माँ के उस पुत्र का नाम ईश्वरचंद्र विद्यासागर।
तो बात ऎसी है कि दुनिया में हर चीज़ के उपयोग और उपभोग की कोई न कोई
सीमा होती है. उसके बाद अक्सर सारी चीजें बेमानी सी लगती हैं. पर ये भी
खूब है कि आदमी अंतिम सांस तक उन चीजों से दामन झटकना नहीं चाहता. बल्कि
जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, चीजों पर, जाने-अनजाने में उसकी पकड़ और मज़बूत
होती जाती है. बल्कि कहना चाहिए उसके मोह का दायरा उतना ही बढ़ता जाता
है. कबीर ने कहा है- अब मैं जानी देह बुढानी. पर ऐसे कितने लोग हैं इस
दुनिया में जो जीवन रहते ही जीवन के छूटते जाने की सच्चाई को सच्चे मन
से स्वीकार कर पाते हैं ? नहीं, यह सचमुच बहुत मुश्किल काम है.
समय और समझ का रिश्ता बहुत माने वाली बात है पर जैसा कि प्रख्यात जैन
साध्वी मणिप्रभा श्री जी कहती हैं कि समझ आती है, हर आदमी को समझ आती है
लेकिन समझ आने की उम्र में समझ नहींआती.है न पते की बात ?पर जैसा कि ऊपर
दी गई छोटी सी कहानी में सन्देश है कि जो जीवन रहते जीवन के उपभोग की
वस्तुओं की सीमाओं और उनके उपयोग की सही और सार्थक दिशाओं की खोज कर लेते
हैं उनकी कमाई, मानवता की भलाई के काम आ जाती है वरना कई बार ऐसा भी देखा
गया है कि सारी कमाई यो ही धरी रह जाती है और आदमी जीवन के पार चाला जाता
है. आखिर ये कहाँ तक सही है, ज़रा सोचें तो सही !
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