सोमवार, 5 मई 2008

सुभाषित / दुष्यंत कुमार

ज़िंदगी में कभी-कभी ऐसा दौर आता है
जब तकलीफ गुनगुनाहट के रास्ते बाहर आना चाहती है.
उसमें फँस कर गमें जानां और गमें दौरां तक एक हो जाते हैं.
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मुझे अपने बारे में मुगालते नहीं रहे.
मैं मानता हूँ मैं गालिब नहीं हूँ.
उस प्रतिभा का शतांश भी मुझमें नहीं है.
लेकिन मैं यह भी नहीं मानता कि मेरी तकलीफ
गालिब से कम है या मैंने उसे कम शिद्दत से महसूस किया है.
हो सकता है,अपनी-अपनी पीड़ा को लेकर हर आदमी को
यह वहम होता है.........लेकिन इतिहास मुझसे जुड़ी हुई
मेरे समय की तकलीफ का गवाह ख़ुद है.
बस.......अनुभूति की इसी जरा-सी पूंजी के सहारे
मैं उस्तादों और महारथियों के अखाड़े में उतर पड़ा।
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'साए में धूप' के फ्लेप का अंश

2 टिप्‍पणियां:

अजित वडनेरकर ने कहा…

मुग़ालते में न रहने वाला मेरे ज्ञान में सचमुच संत होता है। और डाक्ट्साब, मुझे ये मुग़ालता है कि मैं किसी मुग़ालते में नहीं ....:)

Dr. Chandra Kumar Jain ने कहा…

क्या बात है अजित जी !
कहने का ये पैनापन तो
और भी आगे की बात है.
आभार
चंद्रकुमार