मंगलवार, 17 मार्च 2009

रोटियों तक ले चलो...पसंदीदा ग़ज़ल.


बंद कमरे में चटकती चूडियों तक ले चलो
बिक रही है जो तुम उसकी सिसकियों तक ले चलो

जिसके तन का लहू पीकर ये शहर रौशन हुआ
मेहनतकशों की उन अँधेरी बस्तियों तक ले चलो

मुद्दतों गुजरी है मुझको एक पल न सो सका
नींद आ जायेगी माँ की थपकियों तक ले चलो

शेर सुन कर उन गरीबों को मिलेगा क्या भला
हाथ उनका थामकर तुम रोटियों तक ले चलो
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मुकेश त्रिपाठी 'दीपक' की ग़ज़ल साभार.

2 टिप्‍पणियां:

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

रोटी बहुत सार्थक प्रतीक है।

शारदा अरोरा ने कहा…

हकीकत से संवेदनाओं का परिचय कराती रचना , बहुत बढ़िया