मंगलवार, 23 सितंबर 2008

मंगलेश डबराल / सबसे अच्छी तारीख़


मित्रों !
लीजिये पढ़िए
मंगलेश जी की एक और कविता -
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ज़रा-सा आसमान ज़रा-सी हवा
ज़रा-सी आहट
बची रहती है हर तारीख़ में
यहीं कहीं हैं वे लचीली तारीखें
वे हवादार ज़गहें
जहाँ हम सबसे ज़्यादा जीवित होते हैं
शब्दों को स्वाद में बदलते हुए
नामों को चेहरों में
और रंगों को संगीत में

वर्ष अपनी गठरी में लाते हैं
असंख्य तारीखें
और फैला देते हैं पृथ्वी पर
तारीखें तनती हैं
तमतमाए चेहरों की तरह

इतवार को तमाम तारीखें घूरती हैं
लाल आंखों से
तारीखें चिल्लाती हैं भूख
तारीखें मांगती हैं न्याय

कुछ ही तारीखें हैं जो निर्जन रहती हैं
पुराने मकानों की तरह
उदास खाली खोखली तारीखें
जिनमें शेष नहीं है ताक़त
जो बर्दास्त नहीं कर पातीं बोझ

कुछ ही तारीखें हैं
जो पिछले महीनों
पिछले बरसों की तारीखें होती हैं
नदी के किनारों पर
झाग की तरह छूटी हुईं

सबसे अच्छी तारीख़ है वह
जिस पर टँगे रहते हैं
घर-भर के धुले कपड़े
जिसमें फैली होती है भोजन की गर्म खुशबू
जिसमें फल पकते हैं
जिसमें रखी होती हैं चिट्ठियाँ और यात्राएँ

सबसे अच्छी तारीख़ है वह
जिसमें बर्फ़ गिरती है और आग जलती है
सबसे अच्छी तारीख़ है वह
जो खाली रहती है
जिसे हम काम से भरते हैं
वह तारीख़ जो बाहर आती है कैलेंडर से।
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1 टिप्पणी:

ravindra vyas ने कहा…

मंगलेशजी मेरे प्रिय कवि हैं और उनकी यह कविता भी बहुत प्रिय। आपने यह कविता चुनी, इसके लिए गहरा आभार।
इस कविता में थरथराती उस कवि संवेदना को महसूस करिए जो मंगलेश डबराल को मंगलेश डबराल बनाती है।