सोमवार, 28 जुलाई 2008

सुभाषित / एम.टी.वासुदेवन नायर

साहित्य साक्षी होता है मानवीय दुर्गति का,न्यायिक निषेध का। वह समस्त निष्ठुरताओं का गवाह तो है पर उसके पास कोई तैयार निदान या समाधान नहीं है। एक राजनीतिज्ञ कह सकता है - 'तुम मुझे वोट दो, मैं देश को स्वर्ग बना दूँगा।' एक धार्मिक व्यक्ति कह सकता है - 'मेरी राह चलो, निश्चित स्वर्ग मिलेगा।' परन्तु एक लेखक नहीं कह सकता की मेरी रचना पढो, तुम दूसरे ज़हां में पहुँच जाओगे या कि मैं सब कुछ ठीक कर दूँगा। इस विषय में लेखक कुछ भी नहीं कर सकता। वह तो मानवीय यातना की विस्तीर्ण धरती का एक मूक साक्षी है। वह तो केवल अपनी चिंताएँ बाँट सकता है, चेतना जगा सकता है कि देखो यह चीजें हैं जो व्यवस्था को खोखला कर रही हैं, इनसे सावधान रहो।

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वागर्थ : अंक ४९ से साभार.

रविवार, 20 जुलाई 2008

लोक संस्कृति / महावीर अग्रवाल

वर्तमान में विकसित किसी भी देश की संस्कृति का
मूल उद्गम वहाँ का लोक जीवन ही है, क्योंकि
लोक संस्कृति ही तो मानव की सामूहिक ऊर्जा का स्रोत होती है।
लोक जीवन का रस ही समाज की जड़ों को सींचता है।
आज का मनुष्य जिस तरह की मनुष्यता की खोज कर रहा है
उसे लोक संस्कृति के विकास में ही उपलब्ध किया जा सकता है।
यह लोक संस्कृति तो लोक परम्पराओं में, लोक साहित्य, लोक नाट्य,
लोक कला, लोक गीत में सहज आत्मीयता के साथ उल्लसित है।
लोक जीवन में कटुता, द्वेष, घृणा की जगह प्रेम, सेवा, सहृदयता और
हार्दिकता मिलती है। जन कल्याण की भावना से आपूरित लोक संस्कृति
ने हमेशा लोक धर्म के माध्यम से ही अनुभूति और यथार्थ की
अभिव्यक्ति की है। उसके जीवन मूल्य हमारी धरोहर हैं।
लोक संस्कृति की यह जो शक्ति है,
यह उसी विज्ञान सम्मत धारणा के कारण है।
लोक संस्कृति जन-जन के श्रम से सिंचित होकर प्रकृति की गोद में
पलती-पनपती रही है। मानव का मानव के प्रति सहज प्रेम ही
लोक संस्कृति का साध्य रहा है। श्रम की पूजा के साथ ही
पारस्परिक प्रेम से भरी विश्व बंधुत्व की भावना हमारे लोक जीवन का
मूल आधार रही है। जन जीवन के बीच
कलाओं में लोक जीवन आज भी स्पन्दित है। लोक कला को संरक्षण और
प्रोत्साहन देने के नाम पर ढोल पीटने में लगे हुए शोषक वर्ग का नज़रिया
अभिजात समूह के मनोरंजन तक सीमित रह जाता है। जबकि आवश्यकता
लोक-कला और लोक संस्कृति के माध्यम से जनता को बदलने, उसे चैतन्य करने,
उसे परिष्कृत करने की है। जिनकी बिना पर ही ये समाज टिका है।
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लोक संस्कृति आयाम और परिप्रेक्ष्य / श्री प्रकाशन दुर्ग से

शनिवार, 28 जून 2008

विचारणीय / प्रभाष जोशी

पहले जहाँ लिखा था : 'बीवेर, नैरो ब्रिज अहेड',
अब वहाँ आ गया है : 'सावधान, पुलिया संकीर्ण है।'
उस पुल से गुजरने वाले बहुतेरे लोगों के लिए
'सावधान, पुलिया संकीर्ण है' भी उतना ही अंग्रेजी
जितना कि 'नैरो ब्रिज अहेड' था। अगर अंग्रेजी की
ज़गह हिन्दी इसलिए लिखी गई कि लोग पुल से
गुज़रने के पहले जान लें कि वह संकरा है तो यह
इरादा पूरा नहीं हुआ है। हिन्दी ने अंग्रेजी को सिर्फ़
हटाया है।हिन्दी के जन संचार की प्रभावी भाषा न
बन पाने के पीछे सबसे बड़ा कारण हिन्दी और
अंग्रेजी वालों की यह हटाने की मानसिकता है।
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'मसि कागद' में सावधान,पुलिया संकीर्ण है ! शीर्षक लेख से.

मंगलवार, 27 मई 2008

सुभाषित / आचार्य विष्णुकांत शास्त्री

प्रभावित होना और प्रभावित करना जीवंतता का लक्षण है।
कुछ लोग हैं, जो प्रभावित होने को दुर्बलता मानते हैं। मैं ऐसा नहीं मानता।
जो महत् से, साधारण में छिपे असाधारण से प्रभावित नहीं होते,
मैं उन्हें जड़ मानता हूँ। चेतन तो निकट सम्पर्क में आने वालों से
भावात्मक आदान-प्रदान करता हुआ आगे बढ़ता जाता है।
जिस व्यक्ति या परिवेश से अन्तर समृद्ध हुआ हो,
उसे रह-रहकर मन याद करता ही है...करने के लिए विवश है।
जब चारों तरफ़ के कुहरे से व्यक्ति अवसन्न होने लगता है
तब ऐसी यादें मन को ताजगी दे जाती हैं।
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'स्मरण को पाथेय बनने दो' से

सोमवार, 26 मई 2008

जैन सूत्र / अमृता प्रीतम

दुनिया में एकमात्र रचना है,
जो एक लम्बी खामोशी से तरंगित हुई थी ...
ओशो बताते हैं कि महावीर बरसों खामोश रहे।
कोई सूत्र उन्होंने लिख-बोलकर नहीं बताया,
पर उनके ग्यारह शिष्य हमेशा उनके क़रीब रहते थे।
उन्होंने महावीर जी की खामोशी को तरंगित होते
हुए देखाऔर उसमें से जो अपने भीतर सुना,
अकेले-अकेले वह एक जैसा था।
ग्यारह शिष्यों ने जो सुना वह एक जैसा था।
उन्होंने वही कलमबद्ध किया और उसी का नाम जैन सूत्र है।
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'स्मरण गाथा' से

सोमवार, 5 मई 2008

सुभाषित / दुष्यंत कुमार

ज़िंदगी में कभी-कभी ऐसा दौर आता है
जब तकलीफ गुनगुनाहट के रास्ते बाहर आना चाहती है.
उसमें फँस कर गमें जानां और गमें दौरां तक एक हो जाते हैं.
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मुझे अपने बारे में मुगालते नहीं रहे.
मैं मानता हूँ मैं गालिब नहीं हूँ.
उस प्रतिभा का शतांश भी मुझमें नहीं है.
लेकिन मैं यह भी नहीं मानता कि मेरी तकलीफ
गालिब से कम है या मैंने उसे कम शिद्दत से महसूस किया है.
हो सकता है,अपनी-अपनी पीड़ा को लेकर हर आदमी को
यह वहम होता है.........लेकिन इतिहास मुझसे जुड़ी हुई
मेरे समय की तकलीफ का गवाह ख़ुद है.
बस.......अनुभूति की इसी जरा-सी पूंजी के सहारे
मैं उस्तादों और महारथियों के अखाड़े में उतर पड़ा।
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'साए में धूप' के फ्लेप का अंश

शनिवार, 3 मई 2008

सुभाषित / डा.बलदेवप्रसाद मिश्र

साहित्यकार भावयोगी होता है। उसकी साधना ज्ञानयोगी
अथवा कर्मयोगी की साधना से किसी प्रकार कम महत्वपूर्ण नहीं।
भावयोग का तो लोकोत्तर आनंद से सीधा सम्बन्ध रहता है
अतएव वह मुक्तावस्था में स्वतः ही अनायास पहुँच सकता
और अपने सहृदय श्रोताओं अथवा पाठकों को भी
अनायास पहुँचा सकता है।
यही वह साधन है जिसकी साधनावस्था में भी आनंद है
और सिद्धावस्था में भी आनंद है,जिसका साध्य भी आनंद स्वरूप है

और साधन भी आनंदस्वरूप है। परन्तु इस साधना के लिए

शक्ति,अध्ययन और अभ्यास तीनों के ऊँचे सहयोग आवश्यकता रहती है।
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'तुलसी दर्शन' से