शनिवार, 4 अक्टूबर 2008
चन्द्रसेन विराट के मुक्तक.
श्री चंद्रसेन विराट मानव मन की उलझन को
स्पष्ट दृष्टि से शब्द देने वाले और विसंगत
दृश्य चित्रों को पूरी संगति के साथ उकेरने वाले
मेरे प्रिय सृजन-शिल्पी हैं। आज नई दुनिया के
तरंग (५ अक्टूबर २००८ ) में उनकी
सद्यः प्रकाशित कृति
'कुछ अंगारे कुछ फुहारें' की
डॉ.कृष्णगोपाल मिश्र द्वारा लिखित समीक्षा पढ़ी।
उसमें कुछ मुक्तक मन को छू गए
आप भी पढ़ लीजिए।
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जो दिखाए थे, ख़्वाब दो हमको
मौन क्यों हो,ज़वाब दो हमको
हम हैं जनता की मांगते हैं तुमसे
पिछला सारा हिसाब दो हमको
ये है वैश्वीकरण की पुरवाई
ये उदारीकरण की उबकाई
आप नाहक ही आँख ढपते हैं
ये खुलापन ? ये सभी नंगाई
प्रेम,उत्सर्ग किया करता है
वर्ग,अपवर्ग किया करता है
प्रेम ही नर को बना नारायण
भूमि को स्वर्ग किया करता है
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मंगलवार, 23 सितंबर 2008
मंगलेश डबराल / सबसे अच्छी तारीख़
लीजिये पढ़िए
मंगलेश जी की एक और कविता -
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ज़रा-सी आहट
बची रहती है हर तारीख़ में
यहीं कहीं हैं वे लचीली तारीखें
वे हवादार ज़गहें
जहाँ हम सबसे ज़्यादा जीवित होते हैं
शब्दों को स्वाद में बदलते हुए
नामों को चेहरों में
और रंगों को संगीत में
वर्ष अपनी गठरी में लाते हैं
असंख्य तारीखें
और फैला देते हैं पृथ्वी पर
तारीखें तनती हैं
तमतमाए चेहरों की तरह
इतवार को तमाम तारीखें घूरती हैं
लाल आंखों से
तारीखें चिल्लाती हैं भूख
तारीखें मांगती हैं न्याय
कुछ ही तारीखें हैं जो निर्जन रहती हैं
पुराने मकानों की तरह
उदास खाली खोखली तारीखें
जिनमें शेष नहीं है ताक़त
जो बर्दास्त नहीं कर पातीं बोझ
कुछ ही तारीखें हैं
जो पिछले महीनों
पिछले बरसों की तारीखें होती हैं
नदी के किनारों पर
झाग की तरह छूटी हुईं
सबसे अच्छी तारीख़ है वह
जिस पर टँगे रहते हैं
घर-भर के धुले कपड़े
जिसमें फैली होती है भोजन की गर्म खुशबू
जिसमें फल पकते हैं
जिसमें रखी होती हैं चिट्ठियाँ और यात्राएँ
सबसे अच्छी तारीख़ है वह
जिसमें बर्फ़ गिरती है और आग जलती है
सबसे अच्छी तारीख़ है वह
जो खाली रहती है
जिसे हम काम से भरते हैं
वह तारीख़ जो बाहर आती है कैलेंडर से।
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सोमवार, 22 सितंबर 2008
मंगलेश डबराल / मेरी पसंद
वह चित्र उपस्थित करती हैं जिनके
बिना हमारे समय और जीवन का
कोई भी चित्र पूरा नहीं कहा जा सकता।
काव्य संग्रह 'पहाड़ पर लालटेन',
'हम जो देखते हैं', 'घर का रास्ता', 'इस नगरी में रात'
और निबंध संग्रह 'लेखक की रोटी' , 'एक बार आयोबा'
आदि के माध्यम से मंगलेश जी की संवेदना और
लेखकीय चिंता की विविध छवियाँ
देखी-परखी जा सकती हैं।
प्रस्तुत है उनकी एक कविता -
एक स्त्री
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सारा दिन काम करने के बाद
एक स्त्री याद करती है
अगले दिन के काम
एक आदमी के पीछे
चुपचाप एक स्त्री चलती है
उसके पैरों के निशान पर
अपने पैर रखती हुई
रास्ते भर नहीं उठाती निगाह
किसी चट्टान के पीछे
सन्नाटे में एकाएक एक स्त्री सिसकती है
अपनी युवावस्था में
अगले ही दिन आने वाले
बुढ़ापे से बेख़बर
रात को आँखें बंद किए हुए
एक स्त्री सोचती है
समय बीत रहा है
समय बीत जाएगा आँखें बंद किए हुए।
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शनिवार, 20 सितंबर 2008
विनोद कुमार शुक्ल / मुझे बचाना है.
एक और कविता
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मुझे बचाना है
एक एक कर
अपनी प्यारी दुनिया को
बुरे लोगों की नज़र से
इसे ख़त्म कर देने को।
सबसे पहले
घर के सामने से
नीम की शाखा तोड़
मैंने मारा नीम को
भाग यहाँ से पेड़
दूर भाग जा।
घर को पीटा
दीवालों दरवाजों को
उसी नीम की शाखा से
भाग !भाग ! यहाँ से घर।
कोई मुझे करे बेदख़ल
मेरे घर मेरी दुनिया से
फिर अपने को बचाने
जाने कितना समय लगे
भाग यहाँ से घर।
भाग ! भाग ! मेरी दुनिया सबकी दुनिया
बहुत दूर किसी और ज़गह
बची रह जाकर।
मैं यहीं रहूँगा
लड़ता भिड़ता
मैं जनता हूँ
कोई दूसरा लोक नहीं
नहीं परलोक
मरकर या
बचकर मैं अपनी ही दुनिया में जाऊँगा
जो करती होगी इंतज़ार मेरे बचने का।
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मंगलवार, 16 सितंबर 2008
विनोदकुमार शुक्ल / जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे
'दीवार में एक खिड़की रहती थी' उपन्यास पूर्ण किया।
यहाँ प्रस्तुत है उनकी एक कविता -
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जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे
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जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊँगा
एक उफनती नदी कभी
नहीं आयेगी मेरे घर
नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊँगा
कुछ तैरूंगा और डूब जाऊँगा.
पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब
असंख्य पेड़, खेत
कभी नहीं आयेंगे मेरे घर
खेत खलिहानों जैसे लोगों से मिलने
गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा.
जो लगातार काम में लगे हैं
मैं फुर्सत से नहीं
उनसे एक ज़रूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा...
इसे मैं अकेली आख़िरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा.
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शुक्रवार, 8 अगस्त 2008
जो पै तुलसी न गावतो.
बेनी कवि का उदगार मन को छू गया
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बेदमत सोधि,सोधि-सोधि कै पुरान सबै
संत और असंतन को भेद को बतावतो।
कपटी कुराही क्रूर कलि के कुचाली जीव
कौन राम नामहु की चर्चा चालवतो।।
बेनी कबि कहै मानो-मानो यह प्रतीति यह
पाहन-हिए मैं कौन प्रेम उपजावतो।
भारी भवसागर उतारतो कवन पार
जो पै यह रामायण तुलसी न गावतो।।
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गुरुवार, 7 अगस्त 2008
कविता लसी पा तुलसी की कला.
मंगलवार, 5 अगस्त 2008
पत्रकार का दायित्व / डा.शंकर दयाल शर्मा
'चेतना के स्रोत' से साभार
शनिवार, 2 अगस्त 2008
महान हिन्दी सेवी की विरक्ति-भावना / शिवकुमार गोयल
महान ओजस्वी कवि भी थे। उनकी लिखी कविताओं ने
राष्ट्रीय जागरण अभियान में जान फूँकने में अहम
भूमिका निभाई थी। वे स्वयं स्वाधीनता आन्दोलन में
सक्रिय रहे। सन 1921 में उन्हें राजद्रोह के आरोप में
गिरफ्तार किया गया था।
'एक भारतीय आत्मा' के नाम से रचित उनकी कविताओं
से अनेक राष्ट्रीय नेताओं ने प्रेरणा ली थी। उनकी कविता
'पुष्प की अभिलाषा' की पंक्तियाँ तो देश की युवा पीढ़ी को
प्रेरित करने की अनूठी क्षमता रखती थी।
देश के स्वाधीन होने के बाद राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद की
इच्छा थी कि वे मैथिलीशरण गुप्त तथा पंडित बनारसीदास
चतुर्वेदी के साथ-साथ पंडित माखनलाल चतुर्वेदी जी को भी
राज्य सभा का सदस्य मनोनीत करें।
एक दिन खंडवा के कलेक्टर को संदेश पहुँचा कि वे
माखनलाल जी से भेंट कर राज्य सभा की सदस्यता की
स्वीकृति प्राप्त करें। कलेक्टर दादा के निवास-sthan पर पहुँचे
तथा राष्ट्रपति के संदेश से उन्हें अवगत कराया। दादा मुस्कराए और
विनम्रता से बोले ' कलेक्टर साहब, मैंने कभी 'पुष्प की अभिलाषा'
लिखी थी - 'चाह नहीं मैं सुर बाला के गहनों में गूँथा जाऊँ'। उससे आगे
लिखा था, 'माली, मुझे (पुष्प को) तोड़कर उस रास्ते पर फेंक देना
जिससे राष्ट्र वीर गुजरें तथा उनके चरणों का स्पर्श पा सकें।'
'मैं आज भी उसी पुष्प की तरह, राज मुकुट से दूर रहना चाहता हूँ।
मैं किसी भी राजकीय पद की स्वीकृति नहीं दे सकता।
कलेक्टर, वयोवृद्ध सरस्वती साधक की सांसद जैसे पद के प्रति
विरक्ति की भावना को देखकर चकित रह गए।
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'साहित्य अमृत' जुलाई २००७ से साभार
सोमवार, 28 जुलाई 2008
सुभाषित / एम.टी.वासुदेवन नायर
साहित्य साक्षी होता है मानवीय दुर्गति का,न्यायिक निषेध का। वह समस्त निष्ठुरताओं का गवाह तो है पर उसके पास कोई तैयार निदान या समाधान नहीं है। एक राजनीतिज्ञ कह सकता है - 'तुम मुझे वोट दो, मैं देश को स्वर्ग बना दूँगा।' एक धार्मिक व्यक्ति कह सकता है - 'मेरी राह चलो, निश्चित स्वर्ग मिलेगा।' परन्तु एक लेखक नहीं कह सकता की मेरी रचना पढो, तुम दूसरे ज़हां में पहुँच जाओगे या कि मैं सब कुछ ठीक कर दूँगा। इस विषय में लेखक कुछ भी नहीं कर सकता। वह तो मानवीय यातना की विस्तीर्ण धरती का एक मूक साक्षी है। वह तो केवल अपनी चिंताएँ बाँट सकता है, चेतना जगा सकता है कि देखो यह चीजें हैं जो व्यवस्था को खोखला कर रही हैं, इनसे सावधान रहो।
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वागर्थ : अंक ४९ से साभार.
रविवार, 20 जुलाई 2008
लोक संस्कृति / महावीर अग्रवाल
मूल उद्गम वहाँ का लोक जीवन ही है, क्योंकि
लोक संस्कृति ही तो मानव की सामूहिक ऊर्जा का स्रोत होती है।
लोक जीवन का रस ही समाज की जड़ों को सींचता है।
आज का मनुष्य जिस तरह की मनुष्यता की खोज कर रहा है
उसे लोक संस्कृति के विकास में ही उपलब्ध किया जा सकता है।
यह लोक संस्कृति तो लोक परम्पराओं में, लोक साहित्य, लोक नाट्य,
लोक कला, लोक गीत में सहज आत्मीयता के साथ उल्लसित है।
लोक जीवन में कटुता, द्वेष, घृणा की जगह प्रेम, सेवा, सहृदयता और
हार्दिकता मिलती है। जन कल्याण की भावना से आपूरित लोक संस्कृति
ने हमेशा लोक धर्म के माध्यम से ही अनुभूति और यथार्थ की
अभिव्यक्ति की है। उसके जीवन मूल्य हमारी धरोहर हैं।
लोक संस्कृति की यह जो शक्ति है,
यह उसी विज्ञान सम्मत धारणा के कारण है।
लोक संस्कृति जन-जन के श्रम से सिंचित होकर प्रकृति की गोद में
पलती-पनपती रही है। मानव का मानव के प्रति सहज प्रेम ही
लोक संस्कृति का साध्य रहा है। श्रम की पूजा के साथ ही
पारस्परिक प्रेम से भरी विश्व बंधुत्व की भावना हमारे लोक जीवन का
मूल आधार रही है। जन जीवन के बीच
कलाओं में लोक जीवन आज भी स्पन्दित है। लोक कला को संरक्षण और
प्रोत्साहन देने के नाम पर ढोल पीटने में लगे हुए शोषक वर्ग का नज़रिया
अभिजात समूह के मनोरंजन तक सीमित रह जाता है। जबकि आवश्यकता
लोक-कला और लोक संस्कृति के माध्यम से जनता को बदलने, उसे चैतन्य करने,
उसे परिष्कृत करने की है। जिनकी बिना पर ही ये समाज टिका है।
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लोक संस्कृति आयाम और परिप्रेक्ष्य / श्री प्रकाशन दुर्ग से
शनिवार, 28 जून 2008
विचारणीय / प्रभाष जोशी
अब वहाँ आ गया है : 'सावधान, पुलिया संकीर्ण है।'
उस पुल से गुजरने वाले बहुतेरे लोगों के लिए
'सावधान, पुलिया संकीर्ण है' भी उतना ही अंग्रेजी
जितना कि 'नैरो ब्रिज अहेड' था। अगर अंग्रेजी की
ज़गह हिन्दी इसलिए लिखी गई कि लोग पुल से
गुज़रने के पहले जान लें कि वह संकरा है तो यह
इरादा पूरा नहीं हुआ है। हिन्दी ने अंग्रेजी को सिर्फ़
हटाया है।हिन्दी के जन संचार की प्रभावी भाषा न
बन पाने के पीछे सबसे बड़ा कारण हिन्दी और
अंग्रेजी वालों की यह हटाने की मानसिकता है।
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'मसि कागद' में सावधान,पुलिया संकीर्ण है ! शीर्षक लेख से.
मंगलवार, 27 मई 2008
सुभाषित / आचार्य विष्णुकांत शास्त्री
कुछ लोग हैं, जो प्रभावित होने को दुर्बलता मानते हैं। मैं ऐसा नहीं मानता।
जो महत् से, साधारण में छिपे असाधारण से प्रभावित नहीं होते,
मैं उन्हें जड़ मानता हूँ। चेतन तो निकट सम्पर्क में आने वालों से
भावात्मक आदान-प्रदान करता हुआ आगे बढ़ता जाता है।
जिस व्यक्ति या परिवेश से अन्तर समृद्ध हुआ हो,
उसे रह-रहकर मन याद करता ही है...करने के लिए विवश है।
जब चारों तरफ़ के कुहरे से व्यक्ति अवसन्न होने लगता है
तब ऐसी यादें मन को ताजगी दे जाती हैं।
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'स्मरण को पाथेय बनने दो' से
सोमवार, 26 मई 2008
जैन सूत्र / अमृता प्रीतम
जो एक लम्बी खामोशी से तरंगित हुई थी ...
ओशो बताते हैं कि महावीर बरसों खामोश रहे।
कोई सूत्र उन्होंने लिख-बोलकर नहीं बताया,
पर उनके ग्यारह शिष्य हमेशा उनके क़रीब रहते थे।
उन्होंने महावीर जी की खामोशी को तरंगित होते
हुए देखाऔर उसमें से जो अपने भीतर सुना,
अकेले-अकेले वह एक जैसा था।
ग्यारह शिष्यों ने जो सुना वह एक जैसा था।
उन्होंने वही कलमबद्ध किया और उसी का नाम जैन सूत्र है।
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'स्मरण गाथा' से
सोमवार, 5 मई 2008
सुभाषित / दुष्यंत कुमार
जब तकलीफ गुनगुनाहट के रास्ते बाहर आना चाहती है.
उसमें फँस कर गमें जानां और गमें दौरां तक एक हो जाते हैं.
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मुझे अपने बारे में मुगालते नहीं रहे.
मैं मानता हूँ मैं गालिब नहीं हूँ.
उस प्रतिभा का शतांश भी मुझमें नहीं है.
लेकिन मैं यह भी नहीं मानता कि मेरी तकलीफ
गालिब से कम है या मैंने उसे कम शिद्दत से महसूस किया है.
हो सकता है,अपनी-अपनी पीड़ा को लेकर हर आदमी को
यह वहम होता है.........लेकिन इतिहास मुझसे जुड़ी हुई
मेरे समय की तकलीफ का गवाह ख़ुद है.
बस.......अनुभूति की इसी जरा-सी पूंजी के सहारे
मैं उस्तादों और महारथियों के अखाड़े में उतर पड़ा।
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'साए में धूप' के फ्लेप का अंश
शनिवार, 3 मई 2008
सुभाषित / डा.बलदेवप्रसाद मिश्र
साहित्यकार भावयोगी होता है। उसकी साधना ज्ञानयोगी
अथवा कर्मयोगी की साधना से किसी प्रकार कम महत्वपूर्ण नहीं।
भावयोग का तो लोकोत्तर आनंद से सीधा सम्बन्ध रहता है
अतएव वह मुक्तावस्था में स्वतः ही अनायास पहुँच सकता
और अपने सहृदय श्रोताओं अथवा पाठकों को भी
अनायास पहुँचा सकता है।
यही वह साधन है जिसकी साधनावस्था में भी आनंद है
और सिद्धावस्था में भी आनंद है,जिसका साध्य भी आनंद स्वरूप है
शक्ति,अध्ययन और अभ्यास तीनों के ऊँचे सहयोग आवश्यकता रहती है।
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'तुलसी दर्शन' से