गुरुवार, 26 मार्च 2009

ख़्वाब मरते नहीं.


ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब दिल हैं,न आँखें, न साँसें जो
रेज़ा-रेज़ा हुए बिखर जायेंगे
ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब तो रौशनी हैं, नवा हैं, हवा हैं
जो काले पहाड़ों से रुकते नहीं
ज़ुल्म के दोखजों से भी फुंकते नहीं
रौशनी और नवा और हवा के अलम
मकतलों में पहुँचकर भी झुकते नहीं
ख़्वाब जो हर्फ़ हैं
ख़्वाब जो नूर हैं
ख़्वाब सुकरात हैं
ख़्वाब मंसूर हैं।
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अहमद फ़राज़ साहब की रचना
'संस्कृति-कल,आज और कल' से साभार

2 टिप्‍पणियां:

मोहन वशिष्‍ठ ने कहा…

बहुत ही सुंदर रचना है यह अहमद फराज साहब जी की बहुत ही अच्‍छी अच्‍छी रचनाएं लिखी हैं बहुत बहुत धन्‍यवाद इस रचना को पढवाने के लिए

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

सच में मित्र जो ख्वाब नहीं रखता, वह जिन्दा नहीं होता!