गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

अंदाज़े बयां...हर दिन नया.


ढूढता फिरता हूँ ऐ 'इक़बाल' अपने आप को
आप ही गोया मुसाफिर आप ही मंज़िल हूँ मैं
******************* अल्लामा इक़बाल.

2 टिप्‍पणियां:

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

बहुत गूढ़ दर्शन।
धन्यवाद।

अजित वडनेरकर ने कहा…

खुद के भीतर खुद को पाना है। खुद के भीतर चलना है। घट के भीतर जल है और जल के भीतर घट है, यही भेद समझना है। इकबाल तो सूफी रहस्यवाद से जबर्दस्त प्रभावित थे ही।
शुक्रिया...