ढूढता फिरता हूँ ऐ 'इक़बाल' अपने आप को
आप ही गोया मुसाफिर आप ही मंज़िल हूँ मैं
******************* अल्लामा इक़बाल.
आप ही गोया मुसाफिर आप ही मंज़िल हूँ मैं
******************* अल्लामा इक़बाल.
और यह मसि कागद ! न मसि न कागद,फिर भी मसि कागद! तो ये है मेरी एक नई कोशिश! मसि-कागद वाले लिख-लिख कर थक गए पर निर्गुनिया बाबा कबीर की साखी की सीख का बयान पूरा न कर सके. फिर भी हर कोशिश हर पहल का अपना महत्त्व है. इस चिट्ठे के ज़रिए कुछ अपने और ज्यादा उन कलमकारों के सुभाषित और मर्मस्पर्शी विचार आप सब से साझा करना चाहता हूँ जिनके लिए मसि कागद वास्तव में सृजन और जीवन का पर्याय बन गया. इतना ही। बात स्वयं बोलेगी !
2 टिप्पणियां:
बहुत गूढ़ दर्शन।
धन्यवाद।
खुद के भीतर खुद को पाना है। खुद के भीतर चलना है। घट के भीतर जल है और जल के भीतर घट है, यही भेद समझना है। इकबाल तो सूफी रहस्यवाद से जबर्दस्त प्रभावित थे ही।
शुक्रिया...
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