मंगलवार, 17 मार्च 2009

रोटियों तक ले चलो...पसंदीदा ग़ज़ल.


बंद कमरे में चटकती चूडियों तक ले चलो
बिक रही है जो तुम उसकी सिसकियों तक ले चलो

जिसके तन का लहू पीकर ये शहर रौशन हुआ
मेहनतकशों की उन अँधेरी बस्तियों तक ले चलो

मुद्दतों गुजरी है मुझको एक पल न सो सका
नींद आ जायेगी माँ की थपकियों तक ले चलो

शेर सुन कर उन गरीबों को मिलेगा क्या भला
हाथ उनका थामकर तुम रोटियों तक ले चलो
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मुकेश त्रिपाठी 'दीपक' की ग़ज़ल साभार.

मंगलवार, 3 मार्च 2009

मेरी पसंद...निदा फाज़ली

मित्रों निदा साहब के ये दोहे दिल में बस गए.
लीजिए आप भी पढ़िए....
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जीवन भर भटका किए, खुली न मन की गाँठ
उसका रास्ता छोड़कर, देखी उसकी बाट

सातों दिन भगवान के, क्या मंगल क्या पीर
जिस दिन सोए देर तक, भूखा रहे फकीर

मुझ जैसा एक आदमी, मेरा ही हमनाम
उल्टा-सीधा वो चले, मुझे करे बदनाम

सीधा-सादा डाकिया, जादू करे महान
एक-ही थैले में भरे, आँसू और मुस्कान

पंछी मानव, फूल,जल, अलग-अलग आकार
माटी का घर एक ही, सारे रिश्तेदार

मैं भी तू भी यात्री, आती-जाती रेल
अपने-अपने गाँव तक, सबका सब से मेल
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शनिवार, 4 अक्टूबर 2008

चन्द्रसेन विराट के मुक्तक.

मित्रों !
श्री चंद्रसेन विराट मानव मन की उलझन को
स्पष्ट दृष्टि से शब्द देने वाले और विसंगत
दृश्य चित्रों को पूरी संगति के साथ उकेरने वाले
मेरे प्रिय सृजन-शिल्पी हैं। आज नई दुनिया के
तरंग (५ अक्टूबर २००८ ) में उनकी
सद्यः प्रकाशित कृति
'कुछ अंगारे कुछ फुहारें' की
डॉ.कृष्णगोपाल मिश्र द्वारा लिखित समीक्षा पढ़ी।
उसमें कुछ मुक्तक मन को छू गए
आप भी पढ़ लीजिए।
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जो दिखाए थे, ख़्वाब दो हमको
मौन क्यों हो,ज़वाब दो हमको
हम हैं जनता की मांगते हैं तुमसे
पिछला सारा हिसाब दो हमको

ये है वैश्वीकरण की पुरवाई
ये उदारीकरण की उबकाई
आप नाहक ही आँख ढपते हैं
ये खुलापन ? ये सभी नंगाई

प्रेम,उत्सर्ग किया करता है
वर्ग,अपवर्ग किया करता है
प्रेम ही नर को बना नारायण
भूमि को स्वर्ग किया करता है
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मंगलवार, 23 सितंबर 2008

मंगलेश डबराल / सबसे अच्छी तारीख़


मित्रों !
लीजिये पढ़िए
मंगलेश जी की एक और कविता -
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ज़रा-सा आसमान ज़रा-सी हवा
ज़रा-सी आहट
बची रहती है हर तारीख़ में
यहीं कहीं हैं वे लचीली तारीखें
वे हवादार ज़गहें
जहाँ हम सबसे ज़्यादा जीवित होते हैं
शब्दों को स्वाद में बदलते हुए
नामों को चेहरों में
और रंगों को संगीत में

वर्ष अपनी गठरी में लाते हैं
असंख्य तारीखें
और फैला देते हैं पृथ्वी पर
तारीखें तनती हैं
तमतमाए चेहरों की तरह

इतवार को तमाम तारीखें घूरती हैं
लाल आंखों से
तारीखें चिल्लाती हैं भूख
तारीखें मांगती हैं न्याय

कुछ ही तारीखें हैं जो निर्जन रहती हैं
पुराने मकानों की तरह
उदास खाली खोखली तारीखें
जिनमें शेष नहीं है ताक़त
जो बर्दास्त नहीं कर पातीं बोझ

कुछ ही तारीखें हैं
जो पिछले महीनों
पिछले बरसों की तारीखें होती हैं
नदी के किनारों पर
झाग की तरह छूटी हुईं

सबसे अच्छी तारीख़ है वह
जिस पर टँगे रहते हैं
घर-भर के धुले कपड़े
जिसमें फैली होती है भोजन की गर्म खुशबू
जिसमें फल पकते हैं
जिसमें रखी होती हैं चिट्ठियाँ और यात्राएँ

सबसे अच्छी तारीख़ है वह
जिसमें बर्फ़ गिरती है और आग जलती है
सबसे अच्छी तारीख़ है वह
जो खाली रहती है
जिसे हम काम से भरते हैं
वह तारीख़ जो बाहर आती है कैलेंडर से।
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सोमवार, 22 सितंबर 2008

मंगलेश डबराल / मेरी पसंद


मंगलेश जी की कविताएँ समाज का
वह चित्र उपस्थित करती हैं जिनके
बिना हमारे समय और जीवन का
कोई भी चित्र पूरा नहीं कहा जा सकता।

काव्य संग्रह 'पहाड़ पर लालटेन',
'हम जो देखते हैं', 'घर का रास्ता', 'इस नगरी में रात'
और निबंध संग्रह 'लेखक की रोटी' , 'एक बार आयोबा'
आदि के माध्यम से मंगलेश जी की संवेदना और
लेखकीय चिंता की विविध छवियाँ
देखी-परखी जा सकती हैं।
प्रस्तुत है उनकी एक कविता -

एक स्त्री
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सारा दिन काम करने के बाद
एक स्त्री याद करती है
अगले दिन के काम

एक आदमी के पीछे
चुपचाप एक स्त्री चलती है
उसके पैरों के निशान पर
अपने पैर रखती हुई
रास्ते भर नहीं उठाती निगाह

किसी चट्टान के पीछे
सन्नाटे में एकाएक एक स्त्री सिसकती है
अपनी युवावस्था में
अगले ही दिन आने वाले
बुढ़ापे से बेख़बर

रात को आँखें बंद किए हुए
एक स्त्री सोचती है
समय बीत रहा है
समय बीत जाएगा आँखें बंद किए हुए।
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शनिवार, 20 सितंबर 2008

विनोद कुमार शुक्ल / मुझे बचाना है.

श्री विनोद कुमार शुक्ल की
एक और कविता
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मुझे बचाना है
एक एक कर
अपनी प्यारी दुनिया को
बुरे लोगों की नज़र से
इसे ख़त्म कर देने को।

सबसे पहले
घर के सामने से
नीम की शाखा तोड़
मैंने मारा नीम को
भाग यहाँ से पेड़
दूर भाग जा।
घर को पीटा
दीवालों दरवाजों को
उसी नीम की शाखा से
भाग !भाग ! यहाँ से घर।

कोई मुझे करे बेदख़ल
मेरे घर मेरी दुनिया से
फिर अपने को बचाने
जाने कितना समय लगे
भाग यहाँ से घर।
भाग ! भाग ! मेरी दुनिया सबकी दुनिया
बहुत दूर किसी और ज़गह
बची रह जाकर।

मैं यहीं रहूँगा
लड़ता भिड़ता
मैं जनता हूँ
कोई दूसरा लोक नहीं
नहीं परलोक
मरकर या
बचकर मैं अपनी ही दुनिया में जाऊँगा
जो करती होगी इंतज़ार मेरे बचने का।
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मंगलवार, 16 सितंबर 2008

विनोदकुमार शुक्ल / जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे

श्री विनोदकुमार शुक्ल का जन्म १ जनवरी १९३७ को राजनांदगांव (छत्तीसगढ़) में हुआ। उनका पहला कविता संग्रह 'लगभग जयहिंद' १९७१ में प्रकाशित हुआ था। दूसरा 'वह आदमी चला गया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह' १९८१ में तथा उनका पहला उपन्यास 'नौकर की कमीज़' १९७९ में छपा। १९८८ में कहानी संग्रह 'पेड़ का कमरा' और १९९२ में कविता संग्रह 'सब कुछ होना बचा रहेगा' प्रकाशित हुआ। उनकी रचनाओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। १९९४ से १९९६ तक निराला सृजन पीठ भोपाल में अतिथि साहित्यकार रहते हुए श्री शुक्ल ने 'खिलेगा तो देखेंगे',
'दीवार में एक खिड़की रहती थी' उपन्यास पूर्ण किया।
यहाँ प्रस्तुत है उनकी एक कविता -
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जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे
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जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊँगा
एक उफनती नदी कभी
नहीं आयेगी मेरे घर
नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊँगा
कुछ तैरूंगा और डूब जाऊँगा.
पहाड़, टीले, चट्टानें,
तालाब
असंख्य पेड़, खेत
कभी नहीं आयेंगे मेरे घर
खेत खलिहानों जैसे लोगों से मिलने
गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा.
जो लगातार काम में लगे हैं

मैं फुर्सत से नहीं
उनसे एक ज़रूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा...
इसे मैं अकेली आख़िरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा.
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